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समाज दर्शन एवं समाज व्यवस्था • 249
सन्धियों से शरीर को ऊपर-नीचे करके न देखे, न किसी को दिखाये। चंचलता तथा चपलता त्याग कर स्थिर रहे। क्योंकि यदि द्वार या दीवार जीर्ण हुई तो ढह जायेगी और गृहस्थ की आर्थिक क्षति होगी तथा स्थान असुरक्षित हो जायेगा। दीवारों की सन्धि से देखने तथा स्नान घर के सम्मुख खड़े होने से उनके चरित्र पर शंका की जायेगी।।36 यही नहीं यदि उसे गृहस्थ भोजन न दे तो भी वह खिन्न होकर कठोर वचन न कहे क्योंकि इस पर गृहस्थ सामूहिक रूप से सभी श्रमणों का बहिष्कार कर सकते हैं। यदि श्रावक को किसी भी प्रकार का कष्ट हो तो मुनि वहां भिक्षा की याचना न करे।।37
यदि गहस्थ के पास साझे का घर हो और मनि को आश्रय की आवश्यकता हो तो साझे के घर में उसके स्वामियों में से एक की भी आपत्ति हो तो मुनि उस मकान में न ठहरे।।38 क्योंकि इस प्रकार उस गृहस्थ को मुनि द्वारा उसकी सम्पत्ति अधिग्रहीत कर लेने का भय हो जायेगा और वह राजा के समक्ष न्याय के लिए जा सकता है या प्रवाद फैला सकता है। मुनि गृहस्थ से लाये संस्तारक को भी यतनपूर्वक स्वच्छ करके लौटाए ताकि पुनः किसी साधु को देने की दशा में उसे कोई आपत्ति न हो। इसी प्रकार यदि किसी नौका के लिए गृहस्थ को धन देना पड़े या मुनि के लिए नए सिरे से उसे आरम्भ करना पड़े तो मुनि उस नौका में कदापि न बैठे ताकि गृहस्थ कभी भी मुनि को भार स्वरूप न समझे।।39
यद्यपि जैन मुनि जैन श्रावकों से व्यवहार यतनपूर्वक करते थे ताकि संघ के दोनों घटकों प्रवृत्तिमान और निवृत्तिमान में सौहार्द समन्वय बना रहे किन्तु सत्य तो यह है कि सिद्धान्तत: यह दोनों घटक अविरोधी और परस्पर पूरक थे। प्रश्न उठता है कि श्रावक वैयक्तिक सुखभोग के प्रतीक थे और मुनि नैतिक आदर्श के? एक का मार्ग इन्द्रियमूलक और दूसरे का बुद्धिमूलक फिर वह अविरोधी कैसे हुए? किन्तु इस समस्या का निराकरण ज्ञान मीमांसा से होता है जिसमें ज्ञानगत द्वैत अस्वीकृत है। भोग और नीति का विरोध भी तभी तक रहता है जब तक भोग की व्याख्या व्यक्तिपरक हो। वस्तुतः सामाजिक भोग के लिए कर्म निःस्वार्थ होकर नैतिक बन जाता है। यही नैतिकता का सार है। यही समाज दर्शन है।
संदर्भ एवं टिप्पणियां
1. ऋषभदेव एक परिशीलन, पृ० 3। 2. उत्पादितास्त्रयो वर्णाः तदा तेनादिवेघसा।
क्षत्रियाः वणिजः शूद्राः क्षतत्राणादिमिर्गुणैः। महापुराण, 183/16/3621 परवर्ती विज्ञों ने अवश्य उस पर कुछ लिखा है - अथवा ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र भेदात् तत्र-ब्राह्मणा, ब्रह्मचर्येण, क्षत्रियाः शस्त्रपाणयः कृषिकर्मकरा वैश्याः शूद्राप्रेक्षणकारकाः।