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276 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
चक्रवर्ती की अवधारणा
जैनसूत्रों में प्राय: चक्रवर्ती राजा की चर्चा प्राप्त होती है तथा उसे चातुरन्त चक्रवर्ती कहकर सम्बोधित किया गया है। चातुरन्त वह है जिसके उत्तर दिगन्त में हिमवान पर्वत और शेष दिगन्तों में समुद्र हो 90 ऐसे चक्रवर्ती राजा 14 रत्नों का स्वामी होता है। यही क्यों उत्तराध्ययन में शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले वासुदेव की भी चर्चा है। राजा को वज्रपाणि कह कर पुकारा गया है।192 चक्रवर्ती राजा सम्प्रभु होता है। यह सम्प्रभुता उसके अलंकरणों में निवास करती है। उदाहरण के लिए मत्तगन्धहस्ति पर आरोहण, सिर पर चूड़ामनि, ऊंचे छत्र व चामर से सुशोभित, दशाह चक्र से परिवृत युगलकुण्डल, सूत्रक, करधनी व आभूषणों से अलंकृत, शिविकारत्न श्रेष्ठ पालखी में आरूढ, वाद्यों का गगनस्पर्शी दिव्यनाद तथा यथाक्रम से सजी चतुरंगिणी सेना।193 वह नन्दनप्रासाद, जेगल की भूमि, वास्तु, कर, हिरण्य, सोना, अश्व, हाथी, नगर और अन्त:कुल शासन जैसी प्रधान श्रेष्ठ सम्पदा से युक्त होता था। 94 यद्यपि चक्रवर्ती राजा की अवधारणा जैन साहित्य में है किन्तु उसकी अनूठी विशेषता है कि राजपद पर सम्प्रभुशासक के रूप में आसीन होने पर भी चक्रवर्ती राजा पूर्णविश्राम गृहत्याग और राज्यत्याग कर संन्यास जीवन में ही पाते रहे हैं। इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि जैनसूत्रों में जिन भी राजाओं का उल्लेख है वह वही हैं जो चक्रवर्ती सम्राट थे किन्तु जो अन्त में दीक्षा लेकर मुनि हो गये।
यह थे-अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट भरत जो तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र थे तथा जो अन्त में पंचमुष्टि लोंच करके मुनि बन गये।।95
संदर्भ एवं टिप्पणियां
1. दण्डः शास्ति प्रजा: सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्ड: सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्म विदुर्बुधा।। मनुस्मृति, 8/141 2. जैन सूत्रज, जि० 45, परिचयात्मक, पृ० 17। 3. सूत्रकृतांग, (एस०बी०ई०), पृ० 357 तथा आगे। 4. स्थानांगसूत्र, तृतीय उद्देशक : इण्डियन एण्टीक्वेरी, जि० 9, पृ० 1591 5. मनुष्यों द्वारा कई बार मिथ्या दण्ड दिया जाता है। निरपराध पकड़े जाते हैं व दोषी छूट
जाता है। उत्तराध्ययन, 9/301 6. तीक्ष्णदंडो हि भूतानामुद्रेजनीयः। मृदुदण्डः परिभूयते। यथार्हदण्डः पूज्यः। कौटिल्य
अर्थशास्त्र 2/1 तथा मनुस्मृति, 7/19/271 7. महाभारत, 12/62/28-29: द्र० प्राचीन भारतीय शासन पद्धति, पृ० 2। 8. स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शास्ता च सः।। - मनुस्मृति, 7/7। 9. द्र० जी०सी० पाण्डे, श्री आर० के० जैन मेमोरियल लेक्चर्स आन जैनिज्म, पृ० 28-291