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अध्याय 7
आर्थिक दशा एवं अर्थव्यवस्था
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इस पुरुषार्थ चतुष्टय के आधार पर भारतीय मनीषियों ने सम्पूर्ण मानव अस्तित्व को नियमित करने का उपक्रम किया है और इनके बीच सन्तुलन रखने की दिशा भी प्रस्तुत की है। किन्तु, फिर भी भारतीय मनीषा का झुकाव मोक्ष की ओर रहा। समाज में दरिद्रता है, विपन्नता है इसका चिन्तन तो हुआ किन्तु इस आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में कि वह व्यक्ति के किये हुए कर्मों का फल है। इस कर्मफल सत्र में हेतु की खोज भी हई है। उसे परिवर्तित किया जा सकता है, इस पर्याय की दिशा का उद्घाटन नहीं हुआ है। इसका कारण रहा कर्मसिद्धान्त का एकांगी दृष्टिकोण। यदि अनेकान्त दृष्टि से समाजशास्त्री व अर्थशास्त्री देखते तो व्यवस्था परिवर्तन के द्वारा दरिद्रता समाप्त करने का मार्ग दुर्लभ नहीं था। ___ जैन दृष्टि के अनुसार सम्पन्नता या विपन्नता कर्म हेतुक भी होती है किन्तु कर्महेतुक ही नहीं होती। किसी भी कार्य की निष्पत्ति एक हेतु से नहीं होती, हेतु समवाय से होती है। कर्म का विपाक भी अपने आप नहीं होता अपितु वस्तु, क्षेत्र, काल, भाव आदि की युति से होता है। समाज-व्यवस्था का भाव पर्याय समुचित होता है तो विपन्नता को फलित करने वाले कर्म का विपाक ही न होता। समाज के समक्ष विषमता, दरिद्रता, शस्त्रीकरण, युद्ध, जातीयता, पूंजीवाद, साम्प्रदायिकता आदि अनेक समस्याएं हैं किन्तु चिन्तन के धरातल पर इन भौतिक समस्याओं का समाधान दार्शनिकों ने पारमार्थिक आधार पर करने का प्रयास किया है, व्यावहारिक समाधान की दशा में उनका स्वर मुखर नहीं है। __शाश्वत और अशाश्वत दोनों एक ही सत्य के दो पहलू हैं। इन दोनों को विभक्त नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में दर्शन को केवल शाश्वत की व्याख्या तक सीमित नहीं किया जा सकता है। परिवर्तन, जीवन व्यवहार और सामयिक समस्याओं की व्याख्या करना भी दर्शन का ही कार्य है।'
यद्यपि जैन आगम प्रमुख रूप से धर्म और दर्शन से सम्बन्धित हैं तथापि