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302 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
स्वामी को मिलता था। अब प्रश्न उठता है कि क्या उत्पादन वृद्धि ही हित वृद्धि है । पहले तो उत्पादित पण्यों का वितरण कैसा है यह प्रश्न प्रासंगिक है। विभिन्न व्यक्तियों, वर्गों और समाजों में किस अनुपात से धन का वितरण होना चाहिए इसका निर्णय केवल आर्थिक निर्णय नहीं है । वितरण का प्रश्न सामाजिक न्याय के साथ उतना ही बंधा है जितना कि उत्पादकों के कार्यकौशल के साथ। प्रविधि का विकास तथा उपभोग मानव श्रम से सिक्त और प्रकृति के गर्भ के सीमित उपादानों का व्यय करके ही सम्पन्न होता है।
निष्कर्षत: आगमकाल में जनसामान्य की आर्थिक स्थिति खराब नहीं कही जा सकती। देश धनधान्य से समृद्ध था। व्यापार विकसित थे। विलासिता के सभी साधन उपलब्ध थे। उच्चवर्ग का जीवन आनन्दमय था । मध्यमवर्ग की जीवनशैली भी सुखमय थी किन्तु निम्न वर्ग की अवस्था शोचनीय कही जा सकती है। अनेक प्रकार के शिल्प करके भी उनका जीवन शोषण का शिकार था। इस दृष्टि से विचारणीय है कि भौतिक विकास केवल उपभोग का विकास नहीं है अपितु मानवीय ऐश्वर्य, अवकाश और सुविधाओं का भी विकास है। इस प्रकार यह मनुष्य को स्थूल अपेक्षाओं और कर्मों की दासता से मुक्त कर उसे इस बात का अवकाश प्रदान करता है कि वह आत्मोचित जीवन की प्राप्ति के लिए प्रयास कर सके। इसमें स्नदेह नहीं कि ऐसी आर्थिक स्थिति जो मनुष्य को दासता, कृषि दासता और मजदूरी की घोर दरिद्रता और सिर्फ दूसरे के लिए कमर तोड़ परिश्रम में हुए पशुजीवन से उबारती है और उसे आराम, अवकाश, स्वतन्त्रता और सामाजिक समानता देती है। अवश्य ही अमानवीय हित की अवस्था मानी जानी चाहिए।
संदर्भ एवं टिप्पणियां
1. मुनि नथमल जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ० 91
2. उत्तराध्ययन, 7/1 : सूत्रकृतांग, 2/2/63: उत्तराध्ययन, 9/491
3. उत्तराध्ययन, 15/131
4. सूत्रकृतांग, 2/2/631
उत्तराध्ययन, 7/71
5.
6. वही, 12/43-44: 7/1 : आयारो, 9/4/41
7. सूत्रकृतांग, 2/2/631
8. आयारो, 9/4/131
9. कल्पसूत्र, 1/4/631
10. आयारो, 9/4/4 : सूत्रकृतांग, 2/2/111
11. सूत्रकृतांग, 2/2/631
12. वही।