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268 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
आदर्श राजा की अवधारणा
यद्यपि जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म की निवृत्ति परक विचारधारा राजनीति जैसे लौकिक विषय को उपेक्षा का ही विषय मानती है किन्तु राजनीति जैसे प्रत्यय को सर्वथा नकारना संभव नहीं था । अत: जैन मनीषियों ने राजनीति जैसे लौकिक विषय को आध्यात्मिकता का बाना पहना दिया। जहां व्यक्ति होंगे वहां समाज होगा, जहां समाज होगा वहां राज्य भी होगा, जहां राज्य होगा वहां राजनीतिक संस्थाएं भी आवश्यक रूप से होंगी। इस व्यावहारिकता की उपेक्षा जैन साहित्य नहीं कर सका। अतएव जैन धार्मिक साहित्य का मूल विषय आध्यात्म केन्द्रित होने पर भी उसमें इतस्ततः राजनीति का भी उल्लेख प्रसंगवश हो गया है।
अन्य भारतीय परम्पराओं के समान ही जैन परम्परा भी राजा के श्रेष्ठवंश की कुल परम्परा को महत्वपूर्ण मानती है । यद्यपि जैन दृष्टि जाति के विरुद्ध थी तथापि ब्राह्मण परम्परा के अनुकूल इसमें भी राजा के क्षत्रिय कुलोत्पन्न होने का विधान है क्योंकि जैन सूत्रों के अनुसार बलभद्र, चक्रवर्ती, वासुदेव तथा अरिहन्त क्षत्रिय कुलों में ही भूत, भविष्य और वर्तमान में होते रहे हैं। " स्वयं महावीर ज्ञातृक नामक क्षत्रियकुलोत्पन्न थे। 2 क्षत्रिय राजा का जातिमान होना आवश्यक था । " जैन ही क्यों परम्परावादी ब्राह्मणधर्म भी इसे अनिवार्य मानते थे, साथ ही साथ पालि ग्रन्थों का भी इस बात पर विशेष आग्रह है कि राजा क्षत्रिय कुल का व प्रतिष्ठित कुल का हो। 74
राजा से अपेक्षा थी कि वह पूर्ण ऐश्वर्यमान '”, महान ऋद्धि सम्पन्न, महान यशस्वी ", लोक में शान्ति स्थापित करने वाला”, विख्यात कीर्ति, धृतिमान 78, भोगशाली ", शत्रुओं का मानमर्दन करने वाला, श्रेय और सत्य में पराक्रमशील, अमरकीर्ति, महान यशस्वी तथा गुणों से समृद्ध हो । " राजा का धृतिमान होना इसलिए आवश्यक था क्योंकि जैनसूत्रों के अनुसार मूर्ख राजा शीघ्र ही राज्य खो देता है। 2 यही कारण है कि राजा से आशा की जाती थी कि वह सहस्रचक्षु हो, उदीयमान सूर्य के समान अन्धकार नाशक हो, पूर्णिमा के परिपूर्ण चन्द्र के समान ज्ञानादि कलाओं से परिपूर्ण हो ।
राजा को उत्तम लक्षणों से युक्त होना चाहिए। उसे स्वर से सुस्वर, गम्भीर, एक हजार आठ शुभ लक्षणों का धारक, ऋषिगोत्र का धारक, वज्रऋषभ, नाराच संहनन, समचतुरस्त्रसंस्थान तथा मछली के उदर के समान कोमल उदर वाला होना चाहिए। 84 राजा को यशस्वी, जितेन्द्रिय, श्रेष्ठ और लोकनाथ होना चाहिए | ss सामान्यत: जैन परम्परा में राजत्व को अतीत के पुण्यों का फल समझा जाता था । राजा को दैवी शक्तियों से युक्त मानने की परम्परा वैदिक साहित्य से चली आ रही है। राजा में यह दैवत्व अनेक गुह्य यज्ञों के सम्पादन से आता है किन्तु जैन
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