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270 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
इन चक्रवर्ती सम्राटों के अतिरिक्त भी अनेक राजाओं के नाम जैनसूत्रों में प्राप्त होते हैं। जिन्होंने जिनशासन में शरणागति ली, उनमें से प्रमुख हैं-महावीर के समकालीन दशार्ण नरेश दशार्णभद्र, कलिंग के करकण्डु, पंचाल के द्विमुख, विदेह के नमि, गन्धार के नग्गति। चारों राजा अपने पुत्रों को शासन रुढ़ कर श्रमण हो गये।
सिन्धुसौवीर राज उद्रायण (उदयन) ने मुनिधर्म स्वीकार किया।100 बनारस राज अग्निशिखर के पुत्र सातवें बलदेव काशीराज नन्दन ने मुनिधर्म स्वीकार किया। द्वारकावती के ब्रह्मराज के पुत्र, वासुदेव द्विपृष्ठ के बड़े भाई विजयराजा राज त्याग कर संन्यासी हुए।102 इससे प्रकट होता है कि पिता द्वारा अपने जीवन काल में उत्तराधिकारी मनोनीत कर देने अथवा पुत्र को राज्य प्रदान करने की परम्परा आगमकाल में थी। यह परम्परा भारत में बाद तक चली। गुप्त नरेश चन्द्रगुप्त प्रथम ने भी अपने जीवनकाल में ही समुद्रगुप्त को राज्य का उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था। हस्तिनापुर के राजा बल के पुत्र महाबल ने जो तेरहवें तीर्थंकर विमल के समकालीन थे। सिर देकर सिर प्राप्त किया अर्थात् संस्कार का विसर्जन कर सिद्धिरूप उच्च पद प्राप्त किया।103 सुग्रीव नगर के राजा बलभद्र तथा महारानी मृगावती के पुत्र बलश्री ने संसार त्याग कर प्रव्रज्या ली।104 साकेत राजा मुनिचन्द्र राज्य त्याग कर सागर चन्द्र मुनि के पास दीक्षित हुआ।105
वस्तुतः इन चक्रवर्ती सम्राटों तथा अन्य राजाओं के साथ विविध राज्यों की चर्चा भी हो गयी है जैसे दशार्ण, कलिंग, विदेह, सिन्धुसौवीर, बनारस, काशी, पंचाल, हस्तिनापुर, अयोध्या, साकेत, कांपिल्य, द्वारिका, श्रावस्ती आदि।106 इसके अतिरिक्त कौशाम्बी107, चम्पानगरी,108 पिहुण्डनगर 09 तथा सोरियपुर।1० की चर्चा हमें आगमों में मिलती है। आगमकाल में भी भारतीय संस्कृति आध्यात्मोन्मुखी थी। यह इस सामान्य सिद्धान्त से परिपुष्ट होता है कि राजशक्ति ब्रह्मशक्ति से मार्गदर्शन लेती थी। राजा संजय को मृगया का व्यसन था। इसी प्रसंग में एक बार राजा ने मुनि की तपस्या में विघ्न डाल दिया। मुनि के प्रति राजा सामान्यत: श्रद्धाभाव से परिपूर्ण होते थे अतः राजा भयभीत हो मुनि से क्षमायाचना करने लगा तब मुनि ने उसे समझाया कि राजा को तो मुनि का अभयदान है किन्तु राजा भी अभयदाता बने। वह अनित्य लोक में हिंसा में संलग्न न रहे क्योंकि राज्य की आसक्ति व्यर्थ है, त्राणदायी नहीं है। महिमुग्ध जीवन तो विद्युत की चमक के समान अनिश्चित और चंचल है।11 इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म का श्रमण परम्परा से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण राज्य धर्म में भी निवृत्तिवाद की ही प्रमुखता है।