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266 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
लिया । लिच्छवियों को भी मगध साम्राज्य के आगे नतमस्तक होना पड़ा था, पर 200 ई०पू० तक वह पुन: स्वतन्त्र हो गये। 400 ई० में लिच्छवि राज्य अत्यन्त शक्तिशाली था और चन्द्रगुप्त प्रथम को राज्यविस्तार में लिच्छवियों के जामातृ होने से बहुत सहायता मिली। समुद्र गुप्त अपने आप को 'लिच्छवि दौहित्र' कह कर गौरवान्वित होता था ।
इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि शाक्य लिच्छवि इत्यादि क्षत्रिय गणतन्त्रों में ब्राह्मणों के हाथों में अधिकार थे या नहीं कहना कठिन है। निश्चय ही ब्राह्मणों का सामाजिक स्तर सर्वोच्च था। वह सैनिक व सेनापति के पदों पर भी थे तथा उनके गणतन्त्र सिकन्दर के अभियान के समय सिन्ध में थे अर्थात् वहां उनके ही अधीन सब राज्य रहते थे।” गणतन्त्रवासी वाणिज्य व युद्धकला में प्रवीण होते थे ऐसा कथन अर्थशास्त्र में मिलता है जो वैश्यों के सम्मानजनक स्थान की ओर इंगित करता है।“ किन्तु प्राय: बहुसंख्यक गणतन्त्र क्षत्रियप्रधान थे और यहां राज्य संस्था राजन्यों के हाथ में रहती थी । उत्तराध्ययनसूत्र में राजा को यूथाधिपति व गणाधिपति कहा गया है।”
अन्य शासनतन्त्र तथा द्विराज्यशासन
आचारांगसूत्र में जहां छः प्रकार के तन्त्रों का उल्लेख हुआ है जिसमें द्विराज्य व विरुद्धराज्य की भी चर्चा है। 8
यदि दो राजा आपस में लड़ रहे हों या विरुद्ध दशा में उखड़े हों तो इसे विरुद्धराज्य कहा जाता था। ऐसा राज्य जो स्वयं अपने विरुद्ध लड़ रहा हो, असन्तुलित हो तो इसे द्विराज्य (दो रज्ज) कहा जाता था। ऐसे उल्लेख मिलते हैं। जब दो चचेरे भाइयों ने यदि उनका राज्य पर समान अधिकार बनता हो तो राज्य बांटने की जगह संयुक्त राज्य किया हो या दो युगल भ्राताओं ने ऐसे ही राज्य किया हो। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती उसी प्रकार एक राज्य पर दो राजा असीमित शक्तियों को पाकर राज्य नहीं कर सकते। ऐसे राज्य में समूह बन जाते हैं तथा गुटबन्दी हो जाती है जिससे राज्य की एकता छिन्नभिन्न हो जाती है। यही कारण है कि ऐसे राज्य में जैन साधु को भिक्षाचर्या या भ्रमण के लिए जाना निषिद्ध है। अर्थशास्त्र भी ऐसे राज्य का समर्थक नहीं है। 19 द्वैराज्य में कई बार राज्य दो राजाओं में बंट जाता था जैसे कि शुंगकाल में विदर्भ राज्य दो राजाओं में बंट गया था । " महात्माबुद्ध अराजक वैराज्य समाज की ओर आकृष्ट थे और चाहते थे कि गुणों के आधार पर "वैराज्य" का विकास हो ।" वह कहते थे कि व्यक्ति अपना स्वामी आप है । उसका दूसरा कोई स्वामी कैसे हो सकता है? अपने को अच्छी तरह दमन कर लेने से वह दुर्लभ स्वामित्व को प्राप्त
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