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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 179
(2) अवग्रह सीमापरिज्ञानता : अवग्रह के स्थान की सीमा का यथोचित ज्ञान
करना। (3) अवग्रहानुग्रहणता : स्वयं अवग्रह की याचना करना अर्थात् वसतिस्थ तृषा,
पट्टक आदि अवग्रह स्वामी की आज्ञा लेकर ग्रहण करना। (4) गुरुजनों तथा अन्य साधर्मिकों की आज्ञा लेकर ही सबके संयुक्त भोजन में से
भोजन करना। (5) उपाश्रय में पहले से रहे हुए साधर्मिकों की आज्ञा लेकर ही वहां रहना तथा
अन्य प्रवृत्ति करना।
सर्वपरिग्रह विरमण अथवा अपरिग्रह
अपरिग्रह का शब्दार्थ होता है-दान का अस्वीकार। शरीर की मात्रा के लिए जितना आवश्यक हो उससे अधिक धन, अन्न आदि ग्रहण न करना। अपरिग्रही वह है जो परिग्रह न करे. अकिंचन बना रहे।
स्त्री, पुरुष, घर, धन-धान्य आदि वस्तुओं के प्रति ममत्व, ये मेरी है का भाव रखना परिग्रह है। जिन लोगों के पास विपुल सम्पत्ति है, वे अवश्य परिग्रही हैं, परन्तु जिनके पास कुछ भी नहीं है और फिर भी चित्त में बड़ी-बड़ी आकांक्षाएं लिये रहते हैं, वे अपरिग्रही नहीं हैं। वस्तुत: वे भी परिग्रही ही हैं, क्योंकि मन से अकिंचन नहीं है केवल अवसर की कमी है।
परिग्रह भी हिंसा का ही एक रूप है क्योंकि परिग्रह की वृत्ति आ जाने पर व्यक्ति को युक्त अयुक्त, न्याय-अन्याय का भेद नहीं रह जाता है। परिग्रही व्यक्ति धन का स्वामी न रह कर धन का दास बन जाता है। __जैसे भौतिक सम्पत्ति बाह्य परिग्रह है, वैसे ही काम, क्रोध, मद और मोह आदि भाव जिन्हें हम विकार कहते हैं अभ्यन्तर परिग्रह है। यह मनोविकार ही हमें औचित्यानौचित्य के विवेक से विमुख कर देते हैं। जैनाचार्यों का कहना है कि हमें अपनी आवश्यकताओं की एक सीमा निर्धारित कर लेनी चाहिए और उसके आगे अपने पास कुछ भी नहीं रखें।
जैनाचार्यों ने बार बार बलपूर्वक कहा है कि न्याय की कमाई से मनुष्य जीवन भर निर्वाह कर सकता है, किन्तु धन का भण्डार एकत्र नहीं कर सकता। अटूट सम्पत्ति तो पाप की कमाई से ही भरती है। नदियां जब भरती हैं तो वर्षा के गन्दे जल से ही भरती हैं।'
अपरिग्रह के निर्वाह हेतु जांच दोषों से विशेष रूप से बचने की बात कही गयी है, यथा