________________
जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 177
दूसरों के हित के लिए बोला हुआ असत्य वस्तुत: हितकारी बन जाता है तथा धोखे से भी किसी का अहित करने वाला सत्य पाप बन जाता है । परन्तु यदि झूठ बोलकर किसी ऐसे दुष्ट की प्राण रक्षा की जाये जिससे समाज पर संकट आने की संभावना है, तो व्यक्ति दोहरे पाप का भागी बनता है- एक तो असत्य भाषा एवं दूसरा समाज का कष्ट । तात्पर्य यह है कि सत्या - सत्य का भेद निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है। यदि दृष्टि व्यापक हित पर रहती है, तो सत्यासत्य का विवेक सहज साध्य बन जाता है। लक्ष्य के व्यापकत्व पर धर्म कर्म का महत्व निर्भर करता है।
सत्य श्रमण क्रोध, लोभ, लालच, हंसी-मजाक असावधानी आदि किसी के भी वशीभूत होकर कभी भी झूठ नहीं बोलता है। जैन शास्त्र में स्पष्ट लिखा है कि ‘“नापि स्पृष्टः सुदृष्टियः सः सप्तमिमयैर्मनाक' अर्थात् जैन धर्म में जिसकी सत्य श्रद्धा है, वह सात प्रकार के मदों से सर्वथा अछूता रहता है जो मदों से अछूता है वह असत्य से स्वयमेव अछूता रहेगा ।
सत्यव्रत अथवा सर्वमृषा विरमण के लिए पांच भावनाएं बतायी गयी हैं(1) वाणी विवेक, (2) क्रोध त्याग, (3) लोभ त्याग, (4) भय त्याग एवं (5)
हास्य त्याग।
सर्वअदत्तादान विरमण अथवा अस्तेय
जैन धर्म में अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना । आवश्यकता से अधिक वस्तु के संग्रह या उपयोग को चोरी माना जाता है।
जो मनुष्य चुराने के अभिप्राय से दूसरे की एक तृण मात्र वस्तु को भी ले लेता है, वह चोर है और जो इस प्रकार की चोरी को त्याग देता है, वह अचौर्यवती है। चोरी का सम्बन्ध भी मन से अधिक है और उसका उद्देश्य भी वस्तुत: अहिंसा की रक्षा करना है। जब किसी वस्तु के सम्बन्ध में यह सन्देह उत्पन्न हो जाये कि वह मेरी है या नहीं, तब उसका उपयोग नहीं करना चाहिए। जो ऐसा करता है वह चोर है। जब तक यह सन्देह दूर नहीं हो जाये, तब तक उस वस्तु को नहीं अपनाना चाहिए। जो ऐसा नहीं करता वह चोर है।
चोरी करने से उसको कष्ट पहुंचता है, जिसकी चोरी होती है अथवा जिसको आर्थिक हानि पहुंचाई जाती है। इस प्रकार चोरी भी हिंसा की सीमा में आ जाती है। तब चोरी न करना-अचौर्य या अस्तेय हिंसा से बचने अथवा अहिंसा का पालन करने का एक महत्वपूर्ण साधना है।
अचौर्य या अस्तेय नियम के निर्वाह के लिए निम्नलिखित कार्य कभी भी नहीं किये जाने चाहिए