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186 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
वचनगुप्ति हैं। मनोयोग तथा वचनयोग के चार प्रकार हैं- (1) सत्य, (2) असत्य, (3) मित्र तथा (4) व्यवहार ।
काययोग
स्थान, निषीदन, शयन, उल्लंघन, गमन और इन्द्रियों के व्यापार में असत् अंश का वर्णन करना काय गुप्ति है। 15
इस प्रकार यह समिति व गुप्ति साधु आचार का प्रथम व अनिवार्य अंग हैं। चौदह पूर्व पढ़ लेने पर भी जो मुनि प्रवचन माताओं में निपूर्ण नहीं है, उसका ज्ञान अज्ञान है। जो व्यक्ति प्रवचन माता में निपूर्ण है, सचेत है, वह व्यक्ति स्व-पर के लिए त्राण है। यह साधु जीवन का उपष्टम्भ है। इसके माध्यम से ही श्रामण्य का शुद्ध परिपालन सम्भव है। जो इसमें स्खलित होता है वह समूचे आचार में स्खलित होता है।
दमन का प्रत्यय और जैन दर्शन
जैन दर्शन में इन्द्रिय संयम पर काफी बल दिया गया है। लेकिन प्रश्न है कि क्या इन्द्रिय निग्रह सम्भव है? आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से इन्द्रिय व्यापारों का निरोध एक अस्वाभाविक तथ्य है। आंख के समक्ष अपने विषय के प्रस्तुत होने पर वह उसके सौंदर्य दर्शन से वंचित नहीं रह सकती । भोजन करते समय स्वाद को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः विचारणीय प्रश्न है कि इन्द्रिय दमन के सम्बन्ध में क्या जैन दर्शन का दृष्टिकोण आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सहमत है? जैन दर्शन का मत है कि इन्द्रिय व्यापारों के निरोध का अर्थ इन्द्रियों को अपने विषयों से विमुख करना नहीं वरन् विषय के मूल में जो निहित राग द्वेष हैं उन्हें समाप्त करना है। जैनागम" आचारांगसूत्र के अनुसार यह शक्य नहीं है कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जायें अत: शब्दों का नहीं शब्दों के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में अपेक्षित है।
जैन दर्शन के अनुसार साधना का मार्ग औपशमिक नहीं वरन् क्षायिक है, दमन और निरोध में विश्वास नहीं करता क्योंकि क्षायिक मार्ग वासनाओं के निरसन का मार्ग है। यह दमन नहीं चित्त विशुद्धि है । दमित मानसिक वृत्तियां पुनः जाग सकती हैं। वासनाओं को दबा कर आगे बढ़ने वाला साधक विकास की अग्रिम कक्षाओं से अनिवार्यत: पदच्युत हो जाता है। जैन विचारणा के अनुसार यदि कोई साधक उपशम या दमन के आधार पर नैतिक तथा आध्यात्मिक प्रगति