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222 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
अर्थात् सिर को एकदम साफ न कराता हुआ चोटी जितने बाल सिर पर रखता है। वह क्षुल्लक अर्थात् दो वस्त्र पहनता है अथवा केवल एक अधोवस्त्र पहनता है। हाथ में पीछी झाडू रखता है तथा दिन में केवल एक बार भोजन करता है, पाणिपात्र कमण्डलु होता है तथा प्रत्येक पर्व पर उपवास रखता है।
श्रमणभूत प्रतिमा इस प्रतिमा मे स्थित श्रावक श्रमण के समान आचरण करता है। वह उन स्थानों से मांग कर भोजन लेता है जहां से मुनि लेते हैं।263 __इस प्रकार जैन आचारशास्त्र में मुनि, आर्यिका, श्रावक तथा श्राविका समान महत्वपूर्ण हैं। श्रावक श्राविका इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनके सहयोग के अभाव में मुनिचर्या सुगम नहीं होती। श्रावकों में से ही मुनि बनते हैं। इस प्रकार जैन श्रावक का आचार मुनि के आचार की नींव है। सच्चा जैन श्रावक आदर्श गृहस्थ तथा भविष्य का मुनि होता है। __ जैन शास्त्रों के अनुसार जैन श्रावकों से ग्यारह प्रकार के आचरण की अपेक्षा की जाती है264
(1) न्यायपूर्वक धन कमाएं, (2) गुणीजनों का आदर करें, (3) मीठी वाणी बोलें, (4) धर्म, अर्थ और काम का सेवन इस प्रकार करे कि किसी अन्य के लिए
बाधक न हो, (5) लज्जाशील हो, (6) आहार और विहार से मुक्त रहे, (7) सदा सज्जनों की संगति में रहे, (8) शास्त्रज्ञ हो, (9) कृतज्ञ हो, (10) दयालु हो, (11) जितेन्द्रिय हो।
जैन आचारशास्त्र का समन्वयवादी दृष्टिकोण
आचार शास्त्र की प्रकृति और परिभाषा दोनों ही दृष्टि से जैन परम्परा का दृष्टिकोण समन्वयवादी एवं सर्वांगीण है। जैन विचारणा सिद्धान्त और व्यवहार को परम्पर सापेक्ष मानती है। उसकी दृष्टि में आचार दर्शन का कार्य न केवल नैतिकता की