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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 231
असत्य से बचने के नियम बनाये गये थे। निषेधात्मक रूप में सत्य का यह भी अर्थ है कि व्यक्ति अतिशयोक्ति न दिखाये और अवगुण खोजने तथा असभ्य बातचीत में न उलझे । सत्य का स्पष्ट अर्थ है उपयोगी, सन्तुलित तथा सारगर्भित शब्दों को बोलना। 195. जैन दर्शन की रूपरेखा, पृ० 148 196. द्र० भारतीय नीतिशास्त्र, पृ० 130 1
197. यावम्रियेत जठरं तावस्क्वत्वंहि देहिनाम ।
अधिकं यो मिमन्यते स स्तैन: इति कथ्यते ।।
198. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, पृ० 103: द्र० जैन दर्शन की रूपरेखा, पृ० 149 तथा जैन इथिक्स, पृ० 119: सागारधर्मामृत, 4/48।
199. द्र० जैन दर्शन की रूपरेखा, पृ० 149।
200. वही, पृ० 1501
201. द्र० भारतीय नीतिशास्त्र, पृ० 122
202. उत्तराध्ययन, अ० 161
203. कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।। गीता अ० 3/61
204. अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, पृ० 61।
205. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पृ० 661
206. अमितगति श्रावकाचार, 5/11
207. वसुनन्दि श्रावकाचार, 591
'कुछ
208. तत्वार्थसूत्र, 7/16 : द्र० जैन इथिक्स, पृ० 125 : श्वेताम्बर परम्परा में नामों में फेरबदल है। द्र० उपासक दशांग - I, II पृ० 216-26 किन्तु अन्तर मौलिक न होकर केवल आचार्यों का परम्पराभेद दर्शाता है।
209. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पृ० 67,701
210. सागारधर्मामृत, 5/11
211. उपासक दशांग, 1/50 : तुल० तत्वार्थसूत्र, 7/251
212. द्र० जैन धर्म, पृ० 881
213. द्र० पूज्यपादकृत तत्वार्थसूत्र, 7/31/
214. वही ।
215. वही ।
216. वही ।
217. वही ।
218. द्र० इथिकल डाक्ट्रिन्स इन जैनिज्म, पृ० 971
219. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 344: रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 781
220. द्र० जैन इथिक्स, पृ० 128 । 221. वही ।
222. योगशास्त्र, 5/9, पृ० 1711
223. द्र० जैन इथिक्स, पृ० 1291
224. तत्वार्थसूत्र, 7/27 तथा उपासकदशांग, 1/521
225. पूज्यपादकृत तत्वार्थसूत्र, 7/211
226. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पृ० 1021