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समाज दर्शन एवं समाज व्यवस्था • 237 संचार करना चाहिए। जो व्यक्ति प्रस्तुत कार्य के लिए सन्नद्ध हुए वह वैश्य की संज्ञा से अभिहित किये गये। कालान्तर में भूमिपति को क्षत्रिय तथा साहूकारों को गृहपति कहा जाने लगा। तत्पश्चात् अग्नि उत्पन्न होने पर शिल्पी वणिक कहे जाने लगे तथा शिल्प का वाणिज्य से सम्बन्ध होने के कारण वह वैश्य के नाम से ज्ञात हुए। इस प्रकार वैश्य कृषि व पशुपालन भी करते थे।' ___ श्री ऋषभदेव ने मानवों को यह प्रेरणा प्रदान की कि कर्मयुग में एक दूसरे के सहयोग के बिना कार्य नहीं हो सकता। अत: सेवाभावी व्यक्ति शूद्र कहलाये।
भरत के राज्यकाल में श्रावक कर्म उत्पन्न होने पर ब्राह्मणों अर्थात् माहण की उत्पत्ति हुई। यह लोग अत्यन्त सरल स्वभावी और धर्मप्रेमी थे। इसलिए जब वह किसी को मारते पीटते देखते तो कहते मत मारो 'माहण' तभी से यह माहण ब्राह्मण भी कहे जाने लगे।' ऋषभपुत्र भरत ने सच्चे श्रावकों की परीक्षा की और जो उस परीक्षण प्रस्तर पर खरे उतरे उन्हें सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र के प्रतीक के रूप में तीन रेखाओं से चिन्हित कर दिया। यही रेखाएं आगे चलकर यज्ञोपवीत के रूप में प्रचलित हो गयीं। यह स्पष्ट है कि बौद्ध ग्रन्थों के समान प्राचीन जैन ग्रन्थों में भी ब्राह्मण शब्द को एक दार्शनिक रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया गया है जिसमें व्यक्ति के जन्म के स्थान पर उसके अहिंसात्मक गुण को रेखांकित किया गया है। श्रमण परम्परा ने समाज में प्रचलित व्यवस्था का कोई नवीन मौलिक विकल्प प्रस्तुत नहीं किया प्रत्युत् उसकी एक भिन्न व्याख्या ही प्रस्तुत की।
इस प्रकार स्पष्ट है कि आगमकालीन समाज भी वर्णाश्रम धर्म की चातुर्वर्ण व्यवस्था पर आधारित था। यद्यपि यह समाज व्यवस्था अतिसंकीर्ण नहीं थी। जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मण साहित्य इंगित करते हैं कि समाज धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर बंटा हुआ था।
जो कुछ जाति के विरुद्ध बुद्ध या महावीर कर सके वह मात्र इतना था कि उन्होंने इस बात का सम्यक् प्रसार करक दिया कि जाति मुक्ति के मार्ग की बाधा नहीं है। अन्यथा वर्ण और जाति उनके समय भी विद्यमान थी और बाद में भी अस्तित्वशील रही। बुद्ध के अमित आग्रह के बाद भी स्वयं उनके संघ में भिक्षु जाति के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सके।
जैन धर्म और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों के ऊपर क्षत्रियों का प्रभुत्व घोषित करते हुए भी जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन तथा बौद्ध चिन्तकों ने प्रचलित जातिवाद का तीव्रतम विरोध किया और अपने प्रांगण को सभी वर्गों के लिए उन्मुक्त आकाश सा खोल दिया। फलत: उनकी दृष्टि से किसी वर्ग विशेष में मात्र उत्पत्ति ही उसकी श्रेष्ठता का आधार नहीं है बल्कि उसकी श्रेष्ठता का आधार उसके विचार और कर्म हैं। इसलिए उन्होंने कहा