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246 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
प्राचीन जैन साधु ब्राह्मणों के विपरीत,112 निम्नवर्ग के परिवारों, जिनमें बुनकर भी सम्मिलित थे।13 का अन्न ग्रहण करते थे। इसी प्रकार बौद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणी चारों वर्गों के परिवारों में अन्न मांगने जाते थे अथवा निमन्त्रण मिलने पर उनके घर जाकर भोजन कर सकते थे।114 सामान्य धारणा थी कि धन और शक्ति के अतिरेक से जनमानस गृह त्याग करते थे।।15 फलत: निम्नवर्ग के लोग घर नहीं त्यागते थे। किन्तु तथ्य इसके विपरीत हैं। जैनागम के अनुसार संन्यास धारण के कारणों में अकिंचनता, अस्वस्थता, आकस्मिक क्रोध और अपमान आदि भी थे।16 सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि बहुधा जैन साधुओं की आलोचना इसी आधार पर की जाती थी कि जो श्रमण हो जाते हैं, वह अधमाधम कोटि के कामगार होते हैं; वे अपने परिवार का भरण पोषण करने में असमर्थ होते हैं; वह हीनजाति और हीनकोटि के तथा अकर्मण्य होते हैं।।17 श्रमणों की निरन्तर बढ़ती संख्या से समाज असन्तुलित होने लगा था तथा गृहस्थों को वह बोझ लगने लगे थे। अतः इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए ऐसे विचारों का प्रसार किया गया कि जो दुखी व्यक्ति दूसरों से भोजन प्राप्त करने के उद्देश्य से साधु बनेगा उसे अगले जन्म में सुअर बनना पड़ेगा जो फेंके गये जूठन की खोज में घूमता फिरेगा।।18 उदार स्वामी दासों को यदा-कदा प्रसन्न होकर मुक्त भी कर देते थे।।19
बौद्धग्रन्थ के अनुसार बिम्बिसार के राज्य काल में संघ को राजा की ओर से विशेष सुरक्षा प्राप्त थी। यदा कदा बन्दी, चोर, कोड़े से पीटे जाने का दण्ड प्राप्त क्रशाहत व्यक्ति ऋणी और भागे हुए गुलाम बौद्ध धर्म की शरण में चले जाते थे
और अभिषिक्त हो जाते थे। 20 जब ऐसे मामलों की ओर बुद्ध का ध्यान आकर्षित किया गया तब ऐसे व्यक्तियों के संघ प्रवेश को रोकने के लिए नियम बनाये गये। कोई दास दासत्व से मुक्त हुए बिना तथा ऋणी ऋणशोधन किये बिना संघ प्रवेश नहीं कर सकता था।।2। जैन संघ में भी डकैत, राजा के शत्रु, ऋणी, अनुचर, सेवक
और ऐसे व्यक्ति जिनका बलात धर्म परिवर्तन किया गया हो संघ में प्रव्रज्या नहीं पा सकते थे। 22 कारण स्पष्ट था कि बौद्ध तथा जैन संघ उन तत्वों को प्रश्रय नहीं देना चाहते थे जिनके कारण संघ की मानहानि होती, लोकप्रियता को आघात पहुंचता तथा समाज और राज्य का विरोध सहना पड़ता। यह भी इष्टकर नहीं समझा जाता था कि बहुत बड़े श्रमिक वर्ग को संघ में लेकर सांसारिक कर्तव्यों से विमुख कर दिया जाये।।23 कहा जा सकता है कि इस काल के अत्यन्त शक्ति सम्पन्न राजवंशों में से एक शूद्र उत्पत्ति का था और शूद्रों ने निचली गंगाघाटी में सर्वोच्च सत्ता प्राप्त कर रखी थी।।24 किन्तु यह विवरण उस सीमा तक ही प्रामाणिक माने जा सकते हैं जिस सीमा तक नन्दों को हीनकुल का बताया गया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि राजनीतिक सत्ता शूद्र समुदाय के हाथ चली गयी थी। क्योंकि कोई भी ऐसा तथ्य नहीं है जो यह प्रमाणित कर सके कि नन्दवंश के