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समाज दर्शन एवं समाज व्यवस्था • 245 और नहापित या हज्जाम पांचों व्यवसायों को हीन कोटि का बताया गया है। एक बौद्धग्रन्थ में लुद्धाचार खुद्दाचार ति वाक्यखण्ड का प्रयोग शूद्र कार्यों के निर्धारण के लिए किया गया है। जिसका आशय है कि शूद्र वह है जो शिकार और अन्य हीन कर्म द्वारा जीवन निर्वाह करते हैं। जैन ग्रन्थों में भी वृषल गृहदास जन्मजात दास और हीन कुल में उत्पन्न अधम व्यक्ति जैसे शब्दों का प्रयोग उसी रूप में किया गया है जिस रूप में कुत्ता, चोर, डकैत, ठग, मक्कार आदि को दुत्कारा जाता है।
धर्मसूत्रों से शूद्रवर्ण के रहन-सहन पर प्रकाश पड़ता है। शूद्र से अपेक्षित था कि वह उतार फेंके गये जूते, छाते, वस्त्र और चटाई का इस्तेमाल करे।100 जातक कथा से ज्ञात होता है कि चूहे द्वारा काट कर चिथड़े बनाये गये वस्त्र इन्हें दिये जाते थे।10। यह भी ज्ञात होता है कि बुद्धदेव के नेतृत्व में चल रहे एक साधु समाज के पीछे-पीछे पांच सौ व्यक्ति जूठन खाने के उद्देश्य से जाते थे। 02 वसिष्ठ धर्मसूत्र की एक कंडिका में शूद्रों के लक्षण इस प्रकार बताये गये हैं : चुगली खाना, असत्य बोलना, निर्दयी होना, छिद्रान्वेषण करना, ब्राह्मणों की निन्दा करना और उनके प्रति निरन्तर वैर भाव रखना।103 जिससे संकेत मिलता है कि शूद्र तत्कालीन वर्णव्यवस्था के प्रति और विशेषकर आदर्श वर्ण नेता ब्राह्मणों के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे।104
अन्तत: विचारणीय विषय है कि इस काल के धार्मिक सुधार आन्दोलन ने शूद्रों की स्थिति को कहां तक प्रभावित किया। जहां तक धार्मिक उद्धार का सम्बन्ध है बौद्ध धर्म ने न केवल चारों वर्गों के लिए अपना दरवाजा खोलकर उन्हें संघ में प्रवेश करके भिक्षु बनने की अनुमति दी105 अपितु चाण्डालों और पुक्कुसों को भी निर्वाण प्राप्ति के योग्य बनाया।106 इस प्रकार शूद्रों के संघ प्रवेश से ब्राह्मणों द्वारा छीने गये शिक्षा के अधिकार उन्हें पुनः मिल गए। बुद्धदेव के विचारानुसार कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति का क्यों नहीं हो, अध्यापक बन सकता है। कहा गया है कि अध्यापक शूद्र, चण्डाल या पुक्कुस ही क्यों न हो उसका आदर किया जाना चाहिए।107 बौद्ध धर्म की मनोवृत्ति का एक विशेष उदाहरण जातक कथा में मिलता है, जिसमें कहा गया है कि एक ब्राह्मण ने चण्डाल से जादू सीखा किन्त लज्जावश उसे गरु नहीं स्वीकार करने के कारण वह जाद भूल गया।108
आरम्भ में जैन धर्म ने भी सभी वर्गों के सदस्यों को संघ प्रवेश की अनुमति दी और चाण्डालों के उत्थान का भी प्रयास किया।109 महत्वपूर्ण है कि महावीर की प्रथम शिष्या दासी थी जो बन्दी बना कर लाई गई थी।110 उत्तराध्ययन से ज्ञात होता है कि हरिषेण जो जन्म से सोवाग श्वपाक चण्डाल था, एक ब्राह्मण के यज्ञ परिसर में गया और ब्राह्मण को उसने तपस्या, साधु जीवन, सम्यक् चेष्टा, आत्म निग्रह, शान्ति और ब्रह्मचर्य का उपदेश दिया।