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236 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति आकांक्षाओं से परिचित कराती हैं, तथा समाज व्यवस्था के मूलतत्वों का उद्घाटन करती हैं। इन सामाजिक संस्थाओं में वर्ण, जाति, कुटुम्ब, परिवार, स्त्रियों की दशा, सामाजिक संस्कार, विवाह संस्था, सामान्य आर्थिक जीवन, सामाजिक रीति रिवाज आदि प्रमुख विवेच्य विषय हैं।
जैन परम्परा के अनुसार आदिपुरुष भगवान ऋषभदेव की जीवन गाथा कला और संस्कृति, शिक्षा और साहित्य, धर्म और राजनीति का आदि स्रोत हैं। यह महाप्राण व्यक्तित्व दो युगों का संधिकाल है। जब अकर्म से जीवन में जड़ता छा रही थी और भोगासक्ति ने जीवन को नि:सत्व बना रखा था तब ऋषभदेव कर्मयुग के आदि सूत्रधार बने। उन्होंने अधर्म को कर्म की ओर प्रेरित किया, भोग को योग से परिष्कृत करने की कला सिखलाई। पुरुषार्थ जगा, कला का विकास हुआ, समाज की रचना हुई, राज्यशासन का निर्माण हुआ और धर्म एवं संस्कृति की पावन रेखाएं आकार पाने लगीं।'
वर्ण व्यवस्था
जैन परम्परा के अनुसार यौगलिकों के समय वर्ण व्यवस्था नहीं थी। सम्राट ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना की। यह वर्णन आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि, आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, आवश्यक हरिभद्रीयावृत्ति, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र प्रभृति श्वेताम्बर ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से नहीं है।
यहां यह स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है कि वर्ण व्यवस्था की संस्थापना वृत्ति और आजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिए थी, न कि उच्चता व नीचता के कारण।
मनुष्य जाति एक है। केवल आजीविका के भेद से वह चार प्रकार की हो गयी है-व्रत संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्ण धनार्जन से वैश्य और सेवावृत्ति से शूद्र। कार्य से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं। इस प्रकार जैनागमों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नामक चारों वर्णों का उल्लेख है।
आचार्य जिनसेन के मन्तव्यानुसार ऋषभदेव ने स्वयं अपनी भुजाओं में शस्त्र धारण कर मानवों को यह शिक्षा प्रदान की कि अत्याचारियों से निर्बल मानवों की रक्षा करना शक्ति सम्पन्न व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है। इन दायित्वों का निर्वाह करने वाले व्यक्ति क्षत्रिय कहलाये।
श्री ऋषभदेव ने दूर दूर तक की यात्रा जंघाबल से कर जन जन के मन में यह विचार ज्योति प्रज्वलित की कि मनुष्य को सतत गतिमान रहना चाहिए। एक स्थान से दूसरे स्थान को वस्तुओं का आयात निर्यात कर प्रजा के जीवन में सुख का