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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 215
शिक्षा व्रत
श्रावक को कतिपयव्रतों का निरन्तर अभ्यास करना होता है। इसी अभ्यास के कारण इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है। शिक्षाव्रत चार हैं
(1) सामायिक
इसका अर्थ है समभाव का लाभ अथवा समता की प्राप्ति। सामायिक का शाब्दिक अर्थ है एकात्मगमन।225 समन्तभद्र के अनुसार सामायिक करने वाला श्रावक ऐसे श्रमण के समान है जिसे किसी ने वस्त्र पहना दिये हों।226 इस प्रकार सामायिक मन, शरीर और वचन का तादाम्य है।227 सामायिक करने के लिए स्थान, काल व कायमुद्रा महत्वपूर्ण है। सामायिक करने का स्थान भीड़, कोलाहल तथा जीवजन्तु रहित होना चाहिए। सिद्धसेनगणी तत्वार्थसूत्र का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि श्रावक को दिन में तीन बार अन्यथा कम से कम से कम दो बार सामायिक अवश्य करनी चाहिए। व्रत का दिन सामायिक के अनुकूल होना चाहिए। सामायिक का काल काल अभ्यास के साथ निरन्तर बढ़ना चाहिए। श्रावक को खड़े होकर या बैठकर ध्यान करना चाहिए। श्रावक को या तो मन्त्रोच्चार करना चाहिए या आत्मचिन्तन करना चाहिए। श्रावक को सामायिक के पांच अतिचारों से बचना चाहिए
(1) वाग्दुष्प्रणिधान-भाषात्मक दुराचार। (2) कायदुष्प्रणिधान-शारीरिक दुराचार। (3) मनोदुष्प्रणिधान-मानसिक दुराचार। (4) अनादर-सामायिक करने में अनिच्छा। (5) स्मृत्यानुपस्थान-सामायिक के नियमन में विस्मृति आदि करना।
(2) पौषधोपवास
विशेष नियमपूर्वक उपवास करना अर्थात् आत्मचिन्तन के निमित्त सर्वसावध किया को त्याग कर शान्तिपूर्ण स्थान में बैठकर उपवासपूर्वक नियत समय व्यतीत करना पौषधोपवास है। लगभग सभी धर्मों में भोजन सम्बन्धी कुछ विशिष्ट नियन्त्रण मिलते हैं। व्रत को आत्मशुद्धि का साधन माना जाता है। जैन श्रमण हों या श्रावक व्रतों का अभ्यास करते हैं। अष्टमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का उपवास पौषघोपवास के अन्तर्गत करना पड़ता है।228 यहां उपवास में केवल भोजन का ही परित्याग नहीं