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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 217
(2) अनुस्मृति–अतीत के सुखों का स्मरण। (3) अतिलौल्य-कामसुखोपभोग के बाद भी उसमें रागात्मकता। (4) अतितृष्णा-भविष्य सुखों की गहरी चाह। (5) अत्यनुभाव-अतिकामसुख।
(4) अतिथि संविभाग
अपने निमित्त बनाई हुई अपने अधिकार की वस्तु का अतिथि के लिए समुचित विभाग करना तथा संविभाग या अतिथि संविभाग कहलाता है।39 श्रावक का यह कार्य किसी स्वार्थवश न होकर विशुद्ध परमार्थवश किया जाता है। समन्तभद्र इस व्रत का विस्तार वैयावृत्य तक कर देते हैं जहां इसके अन्तर्गत मुनि के चरणवन्दन उनके पांव दबाना आदि भी आता है। इस व्रत के अन्तर्गत दान की अतिमहिमा है।
तीन प्रकार के व्यक्ति दान की पात्रता में उत्तम हैं240—(1) जैन साधु, (2) जैन साधक श्रमणेर या श्रमण, (3) जैन श्रावक।
दाता को भी सात सद्गुणों से युक्त होना चाहिए241
(1) श्रद्धा-भिक्षादान में तथा उसके परिणामों में श्रद्धा। (2) भक्ति-दान के पात्र में भक्ति की भावना। (3) तुष्टि-दान का सन्तोष। (4) विज्ञान-कैसे पात्र को कैसा दान देना चाहिए का ज्ञान। (5) अलौल्य–सांसारिक परिणामों पारितोषकों में विरक्ति। (6) क्षमा-भड़काये जाने पर भी दान देना। (7) शक्ति -सम्पन्न नहीं होने पर भी दान देने का उत्साह।
उपभोग-परिभोग व्रत के अतिचार242
(1) सचित्तनिक्षेप–यदि श्रावक मुनि के लिए हरे पत्ते पर भोजन परोसे। कुछ
व्यक्ति जानकर ऐसा कर सकते हैं ताकि मुनि वह भोजन नहीं स्वीकारे और
श्रावक को लाभ हो। (2) सचित्तापिधान–भोजन को पत्ते आदि सचित्त वस्तु से लपेटना। (3) कालाविक्रम श्रावक जानबूझ कर भिक्षु को ऐसे समय भिक्षा दे जब वह उसे
स्वीकार नहीं कर सके। (4) परिव्यपदेश-मुनि से यह कहना कि भोजन किसी और के लिए रखा है। (5) मात्सर्य-मुनि के लिए अनादर होना। उस पर क्रोध प्रकट करना अथवा उन्हें