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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 199
चूंकि इस प्रकार के मरण में शरीर एवं कषाय को कृश किया जाता है-कुरेदा जाता है, अत: इसे संलेखना भी कहते हैं। संलेखना में निर्जीव की एकान्त स्थान में तृण शय्या संस्तारक बिछा कर आहारादि का परित्याग किया जाता है। अत: इसे संघारा संस्तारक भी कहते हैं।
गोम्मटसार'39 में मरण के दो भेद किये गये हैं—(1) कदलीघात (अकाल मृत्यु) और (2) संन्यास।
कदलीघात
विषभक्षण, विषैले जीवों के काटने, रक्तक्षय, धातुक्षय, भयंकर वस्तुदर्शन तथा उससे उत्पन्न भय, वस्त्रघात, संकलेश क्रिया, श्वासोच्छवास के अवरोध और आहार न करने से जो शरीर छूटता है उसे कदलीघात मरण कहा जाता है।
संन्यास मरण
कदलीघात सहित अथवा कदलीघात के बिना जो संन्यास रूप परिणामों से शरीर त्याग होता है, उसे व्यक्त शरीर कहते हैं। व्यक्त शरीर के तीन भेद हैं-(1) भक्त प्रतिज्ञा, (2) इंगिनी और (3) प्रायोग्य।
(1) भक्त प्रतिज्ञा भोजन का त्याग कर जो संन्यास मरण किया जाता है, उसे 'भक्त परिज्ञा मरण'' कहा जाता है। इसके तीन भेद हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। जघन्य का कालमान अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट का बारह वर्ष और शेष का मध्यमवर्ती।
(2) इंगिनी अपने शरीर की परिचर्या स्वयं करे, दूसरों से सेवा न ले। इस विधि से जो संन्यास धारणपूर्वक मरण होता है, उसे “इंगिनी मरण" कहा जाता है।
(3) प्रायोग्य, प्रयोपगमन अपने शरीर की परिचर्या न स्वयं करे और न दूसरों से कराये, ऐसे संन्यासपूर्वक मरण को प्रायोग्य या प्रायोपगमनमरण कहा जाता है। 40