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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 205
पांच अणुवत
पांच की संख्या प्राचीन भारतीय परम्पराओं के लिए विशिष्ट महत्व रखती थी। छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार एक श्रेष्ठ व्यक्ति में पांच गुण आवश्यक हैं।76
(1) तप, (2) दान, (3) आर्जव सादगी, (4) अहिंसा, तथा (5) सत्य वचन।
छान्दोग्य उपनिषद् में उल्लिखित अन्तिम दो गुण अर्थात् अहिंसा एवं सत्य वचन जैन पांच महावतों के पहले दो महाव्रत हैं। तीसरे गुण की व्याख्या अस्तेय से की जा सकती है। 7 इस प्रकार छान्दोग्य उपनिषद के यह नैतिक गुण जैन व्रतों से मिलते जुलते हैं।
बौधायन प्रमुख नैतिक सद्गुणों की सूची इस प्रकार बताते हैं।78
(1) जीवित प्राणियों की हिंसा से बचना अहिंसा, (2) सत्य, (3) दूसरों की सम्पत्ति के अधिग्रहण से बचना, (4) आत्म संयम सम्भोग आदि से निवृत्ति, (5) दान।
छान्दोग्य उपनिषद में उल्लिखित तप का स्थान जैन परम्परा में आत्म संयम ने ले लिया था। दान नामक पांचवां सद्गुण जैन आचार के लिए उपयुक्त नहीं था। अत: इसके स्थान पर अपरिग्रह को स्वीकार किया गया।7। यह पांचवां व्रत अन्तिम तीर्थंकर महावीर के समय स्वीकार किया गया क्योंकि उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने केवल चातुर्याम को ही स्वीकार किया था।।80 __महावीर ने पार्श्वनाथ के चातुर्याम के स्थान पर पांच महाव्रत क्यों स्वीकार किये इसके विषय में उत्तराध्यन में चर्चा हुई है। पार्श्वनाथ के अनुयायी ऋजु एवं बुद्धिमान थे जबकि महावीर के अनुयायी पाखण्डी और मन्द बुद्धि के थे।।81 इसलिए महावार को स्पष्ट करना पड़ा कि अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य दोनों ही समान महत्वपूर्ण हैं और इस कारण उन्होंने एक ही महावत के दो भाग कर दिये।
पाश्र्वानुयायियों की अपेक्षा महावीर ने नग्न रहने का आदेश दिया था, इसका