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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 207
पश्चात् महर्षि व्यास ने दो निष्कर्ष निकाले थे कि पुण्य परोपकार है तथा पाप परपीड़ा पहुंचाना है। दूसरों से वैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए जैसा तुम उनसे अपने लिए नहीं चाहो । इसी में महाभारत की शिक्षा निहित है । मनुस्मृति भी मांसाहार परित्याग की प्रशंसा करती है । 183
हिन्दू नीतिशास्त्र के अनुसार यह सिद्धान्त प्राणियों की समानता के सिद्धान्त पर आधारित है। भारतीय दार्शनिकों के अनुसार सभी प्राणी समान हैं और सबको जीने का समान अधिकार है। अतः बुद्धिमान मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे ।
यदि व्यक्ति अपना यह अधिकार समझता है कि दूसरे व्यक्ति उसकी रक्षा करें तो उसका भी यह दायित्व हो जाता है कि वह दूसरों की रक्षा करे ।
अहिंसा का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है, निषेधात्मक रूप में और भावात्मक रूप में। निषेधात्मक रूप में अहिंसा का अर्थ है किसी भी प्राणी की जान न लेना। भावात्मक रूप में अहिंसा का अर्थ है आत्मसंयम, त्याग, दयालुता, सहानुभूति तथा सभी प्राणियों के प्रति मैत्री की भावना ।
बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन, तथा मनु आदि ने अहिंसा का उपर्युक्त अर्थों में प्रयोग किया है। परन्तु जैन मताबलम्बियों ने अहिंसा पर जितना बल दिया है, उतना अन्यत्र नहीं मिलता। जैनों ने स्थूल, सूक्ष्म सभी प्रकार के प्राणियों के प्रति मन, वचन और कर्म - तीनों ही रूप में अहिंसाव्रत के पालन का आदेश दिया है। मनु ने अहिंसा का अर्थ केवल निषेधात्मक रूप में लिया है, फिर भी विशेष परिस्थिति में वह हिंसा को नियमानुकूल मानते हैं । 184 मनु के पूर्व भी यज्ञों में की गयी हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता था । 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ।' प्रकृति का नियम भी कुछ ऐसा है कि बहुत से प्राणियों का जीवन अन्य के जीवन पर निर्भर करता है। 185 जीवो जीवस्य जीवनं; जीवो जीवस्य भोजनं ।
व्यावहारिक जीवन में यह सम्भव नहीं है कि किसी प्रकार की हिंसा की ही नहीं जाये। कभी कभी लोककल्याण के लिए हिंसा का भी सहारा लेना अहिंसा से विमुख होना नहीं कहा जा सकता। जन कल्याण की भावना की रक्षा के लिए यदि हिंसा के अतिरिक्त अन्य कोई साधन बच ही न जाये और ऐसी परिस्थिति में जन कल्याण की रक्षा के लिए हिंसा करना पड़े तो कोई आपत्ति नहीं की जानी चाहिए।
इन्हीं विचारों को दृष्टि में रखते हुए श्रावक के लिए अहिंसाणुव्रत को दो बिन्दुओं से निर्दिष्ट किया गया है। 186 (1) श्रावक की पारिवारिक परिस्थितियां मुनि से भिन्न होती हैं। उसे अपने परिवार के दायित्व पूरे करने होते हैं तथा परिवार के सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आजीविका करनी पड़ती है। (2) उसे अपनी तथा देश की शत्रुओं से रक्षा करनी होती है।
पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ अहिंसा पालन को दृष्टि में रखते