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208 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति हुए श्रावक से निश्चित व्यवसायों को करने की अपेक्षा की जाती है। उसे सावधानीपूर्वक ऐसे व्यवसाय चुनना होता है जिसमें न्यूनतम हिंसा हो। उद्यम हिंसा से भी जहां तक हो बचना चाहिए। गृहस्थ के यहां भोजन पकाने की प्रक्रिया आदि में भी हिंसा की थोड़ी बहुत सम्भावना रहती है। आरम्भी हिंसा तथा उद्यम हिंसा गृहस्थ के लिए क्षम्य हैं।187
इसी प्रकार आत्मरक्षा के लिए हिंसा की जहां सम्भावना है, वहां श्रावक से अपेक्षा की जाती है कि वह युद्ध में हिंसा को रक्षा का ही माध्यम बनाये, आक्रमण का नहीं। परिस्थिति से बाध्य होकर वह युद्ध की चेतावनी मिलने पर विरोधी हिंसा का सहारा ले सकता है।
श्रावक को किसी भी स्थिति में संकल्पी हिंसा का परित्याग करना है।188 संकल्पी हिंसा के अन्तर्गत आनन्द या कौतूहल के लिए की जाने वाली हिंसा तथा तीव्र वासना के कारण की जाने वाली हिंसा परिगणित होती है। इनका त्याग श्रावक सहजता से कर सकता है क्योंकि यह न तो उसके व्यवसाय की विवशता है और न ही इसका सम्बन्ध आत्मरक्षा या देशरक्षा से है। यही नहीं अहिंसाणुव्रत के अन्तर्गत आने वाली न्यूनतम हिंसा भी श्रावक के कर्म तो बांधती ही है। ज्यों-ज्यों श्रावक आध्यात्मिक उत्कर्ष को प्राप्त होता है वह अपने आचार में सभी प्रकार की हिंसा को त्यागता जाता है तथा निरन्तर निन्दा और गर्दा के द्वारा अपने किये का प्रायश्चित करता है।89
सत्याणु व्रत
भारतीय नीतिशास्त्र में सत्य न केवल नैतिक प्रत्यय है अपितु तात्विक सत्ता भी है। 90 किन्तु, जैन सत्य विषयक अवधारणा में- (1) सत्य, ब्रह्म जैसी अमूर्त तात्विक सत्ता होने की अपेक्षा मात्र एक नैतिक सिद्धान्त है। (2) तथ्य का कथन मात्र सत्य नहीं है जब तक कि उसका प्रेरक हित न हो। (3) सत्य अहिंसा के अधीन है। अहिंसा की परिपालना के लिए सहायक भर है।
जैन श्रावक के लिए सत्याणु व्रत का वैसा कठोर पालन आवश्यक नहीं है जैसा कि मुनि के लिए है। जैन नीतिशास्त्र में सत्य पर आग्रह है किन्तु अभिप्राय कटुवचन या कटुसत्य से नहीं है। सत्यवादिता यथार्थवादिता अवश्य हो, परन्तु उसमें कटुता नहीं होनी चाहिए। जैन श्रावकों के सत्य का स्वरूप है- “सत्यं पथ्यं वचस्तथ्यं सुनृतं व्रतमुच्यते।''191
प्राचीन ब्राह्मण परम्परा में भी अप्रिय सत्य को बोलने की मनाही थी। मनु के अनुसार