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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 203
भगवती में पादोपगमन या प्रायोपगमन के दो भेद किए गये हैं–निर्हारि और अनिर्हारि।।68 निर्हारि का अर्थ है बाहर निकलना। उपाश्रय में मरण प्राप्त करने वाले साधू के शरीर को वहां से बाहर ले जाना होता है, इसलिए उस मरण को निर्हारि कहते हैं। अनिर्हारि अरण्य में अपने शरीर का त्याग करने वाले साधू के शरीर को बाहर ले जाना नहीं पड़ता, इसलिए उसे अनिर्हारि मरण कहा जाता है।
जैन श्रावक तथा श्राविका का आचार
गृहस्थ के लिए जैन श्रावक शब्द का प्रयोग करते हैं। श्रावक शब्द उन व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त होता है जिन्होंने सम्यक् श्रद्धा चरित्र को प्राप्त कर लिया है किन्तु जो भिक्षु नहीं बने हैं। यह व्यक्ति या तो आंशिकरूप से अणुव्रतों का पालन करते हैं अथवा अवरत सम्यक् दृष्टि होते हैं। किन्तु सम्यक् चारित्र जैन श्रावकों के लिए आवश्यक पात्रता है। वह श्रावक के लिए बताये गये बारह व्रतों का पालन करता है तब अपनी वासनाओं को मर्यादित करने की दिशा में बढ़ता है। जब तक कि वह इन व्रतों के पालन द्वारा भिक्षु का जीवन अंगीकार करने में समर्थ न हो जाये। यह क्रमिक विकास की अवस्था है। इससे उच्च आध्यात्मिक विकास होने पर श्रावक नैष्ठिक कहलाता है। नैष्ठिक श्रावक सांसारिक जीवन का त्याग करके ऐसा जीवन बताते हैं जो श्रमण जीवन के सदृश या श्रमण मूल प्रतिमा है। इस प्रकार श्रावक ऐसा व्यक्ति है जिसमें गृहस्थ के आचार भी हैं और हिन्दू धर्मशास्त्र में बताये वानप्रस्थी के भी।
गृहस्थ का स्थान
जैन नीतिशास्त्र प्रमुख रूप से संन्यास प्रधान है। गृह, जीवन का अर्थ एक अल्प विश्राम भर है। एक छोटा सा ठहराव, एक मोड़ उनके लिए जो अभी भिक्षु जीवन की कठिनाइयों को सहने के योग्य नहीं हए हैं। इस प्रकार नैतिकता की दृष्टि से गृहस्थ का स्थान भिक्षु के पश्चात् आता है। यही कारण है कि जैनों के प्राचीनतम ग्रन्थ उदाहरण के लिए श्वेताम्बर ग्रन्थ आचारांगसूत्र तथा दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार प्रमुख रूप से श्रमण जीवन को समर्पित हैं।
ठीक इसके विपरीत स्थिति ब्राह्मण धर्म में पाई गई है। आरम्भिक ब्राह्मण साहित्य का प्रमुख आग्रह गृहस्थ जीवन पर है। संन्यास ब्राह्मण धर्म में परवर्ती काल में स्वीकृत संस्था है। ब्राह्मण साहित्य की प्रतिनिधि मनुस्मृति इस प्रसंग में उल्लेखनीय है जिसमें कहा गया है कि जिस प्रकार सभी नदियां समुद्र में आश्रय पाती हैं उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थाश्रम में आश्रय पाते हैं। 69