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204 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
अविरत सम्यक् दृष्टि का आदर्श
मुक्ति के पथ में सम्यक् दृष्टि पथ प्रदर्शक है।।70 सम्यक् दृष्टि से सम्पन्न एक श्रावक सम्यक् दृष्टि से हीन श्रमण से अधिक श्रेष्ठ है। __जैन धर्म आन्तरिक वैराग्य एवं संसार त्याग दोनों पर ही बल देता है। सम्यक् दृष्टि आंतरिक वैराग्य को प्रकट करती है। यह स्थिति गीता के कर्मयोग के समान है क्योंकि सम्यक् दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति के लिए हो सकता है कि संसार को पूर्ण रूप से त्यागना एकदम सम्भव न हो किन्तु उसके कर्म उसे बांधते नहीं हैं। अर्धपुद्गलप्रवृत्त को सम्यक् दृष्टि द्वारा आगे बढ़ने के लिए धरातल मिल जाता है, तब वह अणुव्रतों का पालन करनते हुए श्रमण जीवन की ओर अग्रसर हो जाता है।172
श्रावक के बारह व्रत
जैन आचार शास्त्र में व्रतधारी गृहस्थ को श्रावक, उपासक, अणुव्रती, सागार आदि कहा गया है। चूंकि वह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनों अथवा श्रमणों के निर्ग्रन्थ प्रवचन का श्रवण करता है, अत: उसे श्रद्धा श्रावक कहते हैं। चूंकि वह गृहस्थ है घर धारण करता है, अत: उसको सागार, आगारी, गृहस्थ, गृही आदि नामों से पुकारा जाता है।
श्रावकाचार से सम्बन्धित उपासक धर्म का प्रतिपादन तीन प्रकार से किया जाता है
(1) बारह व्रतों के आधार पर, (2) ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर, (3) पक्षचर्या निष्ठा एवं साधना के आधार पर।
श्रावक के बारह व्रतों में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा शेष चार शिक्षाव्रत कहलाते है।।73 रत्नकरण्ड श्रावकाचार के अनुसार श्रावक को आठ आवश्यकों का पालन जरूरी है जिसमें पांच अणुव्रतों का पालन तथा मांस, मदिरा और मधु का परित्याग आते हैं।174 सम्यक् दृष्टि इन आठ आवश्यक अंगों के द्वारा परिपूर्ण होती है। जिस प्रकार से मन्त्र मात्र एक अक्षर के कम रह जाने पर विष की पीड़ा कम नहीं कर सकते उसी प्रकार समयक् दृष्टि इन आठ आवश्यकों में से एक के भी अभाव में जन्मों की श्रृंखला नहीं छोड़ सकता।।75