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202 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
वाले, अन्धकार से आच्छादित, ऋद्धि में आसक्त, रसों में आसक्त और सुख के अभिमानी जीव बाल मरण से मरते हैं।
संयति का मरण पण्डित मरण कहलाता है। विजयोदया।58 में इसके चार भेद किये गये हैं
(क) व्यवहार पण्डित : जो लोक, वेद और समय के व्यवहार में निपूर्ण उनके
शास्त्रों का ज्ञाता और शुश्रुषा आदि गुणों से युक्त हो। (ख) दर्शन पण्डित : जो सम्यकत्व से युक्त हो। (ग) जो ज्ञान से युक्त हो। (घ) जो चारित्र से युक्त हो।
संयता-संयत का मरण बाल पण्डित मरण कहलाता है।159 स्थूलहिंसा आदि पांच पापों के त्याग तथा सम्यक् दर्शन योग्य होने से वह पण्डित है। सूक्ष्म असंयम से निवृत्ति न होने के कारण उसमें बालत्व भी है।160
मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मतिज्ञानी श्रमण के मरण को छद्मस्थ मरण कहा जाता है।।6।
केवलज्ञानी का मरण केवलि मरण कहलाता है।
वृक्ष की शाखा पर लटकने, पर्वत से गिरने और झंपा लेने आदि कारण से होने वाला मरण वैहायस मरण कहलाता है।।62
हाथी आदि के कलेवर में प्रविष्ट होने पर उस कलेवर के साथ-साथ उस जीवित शरीर को भी गीध आदि नोंच कर मार डालते हैं। इस मरण को गृद्धपृच्छ मरण कहते हैं।163
___ यावद् जीवन के लिए त्रिविध अथवा चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक जो मरण होता है, उसे भक्तप्रत्याख्यान मरण कहा जाता है। 64
प्रतिनियत स्थान पर अनशनपूर्वक मरण को इंगिनी मरण कहते हैं। जिस भरण में अपने अभिप्राय से स्वयं अपनी सुश्रुषा करे, दूसरे मुनियों से सेवा न ले उसे इंगिनी मरण कहा जाता है।
अपनी परिचर्या न स्वयं करे और न दूसरों से कराये, ऐसे मरण को प्रायोपगमन अथवा प्रायोग्यमरण कहते हैं।।65 वृक्ष के नीचे स्थिर अवस्था में चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक जो मरण होता है, उसे पादोपगमन मरण कहते हैं।166 अपने पांवों के द्वारा संघ से निकलकर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता है उसे पादोपगमन मरण कहा जाता है। इस मरण को चाहने वाले मुनि अपने शरीर की परिचर्या न स्वयं करते हैं न दूसरों से करवाते हैं। 67