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190 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति (1) शीत मन्द परिणाम वाले। जैसे स्त्री परीषह और सत्कार परीषह। यह दो
अनुकूल परीषह हैं। (2) उष्ण तीव्र परिणाम वाले। यह प्रतिकूल परीषह हैं।
(1) क्षुधा परीषह
देह में क्षुधा व्याप्त होने पर तपस्वी और प्राणवान भिक्षु फल आदि का छेदन न करे न कराये। पकाये, न पकवाये। शरीर के अंग भूख से सूखकर काकजंघा नामक तृण जैसे दुर्बल हो जायें, शरीर कृश हो जाये, धमनियों का ढांचा भर रह जाये तो भी आहार पानी की मर्यादा को जानने वाला साधु अदीनभाव से विहरण करे।68
(2) पिपासा परीषह
असंयम से घृणा करने वाला, लज्जावान संयमी साधु प्यास से पीड़ित होने पर संचित पानी का सेवन न करे, किन्तु प्रासुक जल की एषणा करे। निर्जन मार्ग में जाते समय प्यास से अत्यन्त आकुल हो जाने पर भी साधु प्यास के परीषह को सहन करे।
(3) शील परीषह
विचरते हुए विरत और रुक्ष शरीर वाले साधु को शीत ऋतु में सर्दी सताती है। फिर भी वह जिन शासन को सुनकर आगम के उपदेश को ध्यान में रखकर स्वाध्याय आदि की मर्यादा का अतिक्रमण न करे। शील से प्रताड़ित होने पर भी मुनि ऐसा न सोचे कि मेरे पास शीत निवारक घर आदि नहीं है और छवित्ताण वस्त्र, कम्बल आदि भी नहीं है, इसलिए मैं अग्नि का सेवन करूं।०
(4) उष्म परीषह
गर्म धूल आदि के परिताप, स्वेद, मैल या प्यास के दाह अथवा ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी मुनि सुख के लिए विलाप न करे। गर्मी से अभितप्त होने पर भी मेधावी मुनि स्नान की इच्छा न करे। शरीर को गीला न करे। पंखे से शरीर पर हवा न ले।।