________________
जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 193
(17) तृण स्पर्श परीषह
अचेलक और रुक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी के घास पर सोने से शरीर में चुभन होती है। यह जानकर भी तृण से पीड़ित मुनि वस्त्र का सेवन नहीं करते। 4
(18) जल्ल परीषह
निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्यधर्म को पाकर देह-विनाश पर्यन्त काया पर “जत्त'' स्वेदजनित मैल को धारण करे और तज्जनित परिषह को सहन करे।85
(19) सत्कार पुरस्कार परीषह
जो राजा आदि के द्वारा किये गये अभिवादन, सत्कार अथवा निमन्त्रण का सेवन करते हैं, उनकी इच्दा न करे-उन्हें धन्य न माने। अल्प कषाय वाला अज्ञात कुलों से भिक्षा लेने वाला, अलोलुप भिक्षु रसों में गृद्ध न हो। प्रज्ञावान मुनि दूसरों को देख अनुताप न करे।86
(20) प्रज्ञा परीषह
पहले किये हुए अज्ञानरूप फल देने वाले कर्म पकने के पश्चात् उदय में आते हैं। इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि आत्मा को आश्वासन न दे।87
(21) अज्ञान परिषह
तपस्या और उपधान को स्वीकार करता हूं, प्रतिमा का पालन करता हूं, इस प्रकार विशेष चर्या से विहरण करने पर भी मेरा छद्म ज्ञानावरणादि कर्म निवर्तित नहीं हो रहा है ऐसा चिन्तन करे।88
(22) दर्शन परीषह
जिन हुए थे, जिन हैं और जिन होंगे-भिक्षु अनवरत ऐसा चिन्तन करे।