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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 195
(2) चतुर्दिशतिस्तव
चतुर्दिशतिस्तव का अर्थ है चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति |" इन तीर्थकरों के निम्न गुण हैं
(1) वह लोकों को अपने आध्यात्मिक प्रकाश से आलोकित करते हैं। 7 (2) वह विकारों को शान्त करते हैं, वासना का नाश करते हैं, मानसिक दूषण को दूर करते हैं। यह द्रव्य तीर्थ भी हैं और भावतीर्थ भी हैं ।" ये श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र से सम्पन्न होते हैं । "
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(3) जिन्होंने कषाय विजय कर ली है। 100
(4) जिन्होंने कर्म प्रणाश किया है। 101 (5) जो सर्वपूजित हैं । 102
( 6 ) जो केवलज्ञान से युक्त हैं। 103
इन तीर्थंकरों से स्वतन्त्रता, ज्ञान और समाधि मरण के लिए अनुकम्पा की प्रार्थना की जाती है। 04 किन्तु श्रद्धा की दृष्टि से यह असत्यमृषा है क्योंकि 'जिन' अनुराग और घृणा जैसी भावनाओं से मुक्त होने के कारण समाधिमरण अथवा ज्ञान प्रदान नहीं कर सकते | 105
(3) वन्दना
वन्दना का तात्पर्य है धर्मप्रवर्तक, श्रमण, अर्हन्त और सिद्धों की प्रतिमाओं के प्रति श्रद्धा प्रकट करना। वरिष्ठ प्रव्रजित श्रमणों तथा अन्य गुणों में आगे बढ़े हुए श्रमणों के प्रति सम्मान व्यक्त करना भी इस आवश्यक के अन्तर्गत आता है। 106 जो व्यक्ति पंच महाव्रतों का पालन नहीं करते मुनि उनके प्रति सम्मान नहीं करे। इस नियम के अन्तर्गत माता-पिता, ढीले चरित्र का गुरु, राजा जैनेत्तर श्रमण, श्रावकों आदि की गणना की गयी है । वन्दना बत्तीस दोषों से युक्त होनी चाहिए जिनमें अनादर, अभिमान, भय, आकांक्षा तथा विश्वासघात सम्मिलित होते हैं। 107 इसके अतिरिक्त यह शिष्टता की मर्यादा है कि उन व्यक्तियों के प्रति श्रद्धा प्रकट नहीं की जाये जिन्होंने केवल उपदेश दिये हों, जो असावधान हों, जो भोजन की मर्यादा या पात्र की मर्यादा से हीन हों | 108