________________
184 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
समिति
समिति का अर्थ है सम्यक् प्रवर्तन। इसका माप दण्ड अहिंसा है। अहिंसा से जो संचलित है वही समिति है। मुनि कैसे जाये, कैसे बोले, कैसे चले, वस्तुओं का व्यवहरण कैसे करे, उत्सर्ग कैसे करे, इसका स्पष्ट विवेचन समितियों में किया गया है। (1) ईर्यासमिति-मुनि जब चले तब गमन की क्रिया में उपयुक्त हो जाये। प्रत्येक
चरण पर उसे यह भान रहे कि वह चल रहा है। संयमी मुनि अहिंसा का विवेक करे। वह आलम्बन, काल, भाव और वचन-इन चार कारणों से यतना करे, परिशुद्ध ईर्या से चले।26 ईर्या का आलम्बन रत्नत्रयी है। अत: मुनि उत्पथ का वर्जन करे।27 द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से यतना करे। द्रव्य से अर्थात आंखों से देखे। क्षेत्र से अर्थात् युगमात्र मुनि को देखे। काल से जब तक चले तब तक देखे। भाव से उपयुक्त गमन में दत्तचित्त रहे। वह इन्द्रिय
विषयों का वर्जन कर ईर्या में तन्मय रहे। (2) भाषा समिति—मुनि असत्य भाषण न करे। असत्य के आठ कारण हैं-क्रोध,
मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मौखर्य और विकथा। मुनि इनका वर्णन
करे। यह भाषा सम्बन्धी अहिंसा का विवेक है। (3) एषणा समिति-एषण समिति जीवन निर्वाह के आवश्यक उपकरणों,
आहार, वस्त्र आदि के ग्रहण और उपभोग सम्बन्धी अहिंसा का विवेक है। प्रज्ञावान मुनि आहार, उपधि और शैया के विषय में गवेषणा, ग्रहणेषणा
और परिभोगेषणा इन तीनों का विशोधन करे।2 यतनाशील यति प्रथम एषणा गवेषणा: एषणा में उद्गम और उत्पादन-दोनों का शोधन करे। दूसरी एषणा ग्रहण-एषणा में एषणा ग्रहण सम्बन्धी दोषों का शोधन करे और परिभोगैषणा में दोष चतुष्क संयोजना, अप्रमाण, अंगारधूप और कारण का शोधन करे। आदान समिति—यह दैनिक व्यवहार में आने वाले पदार्थों के व्यवहरण सम्बन्धी अहिंसा का विवेक है। मुनि औध, उपधि सामान्य उपकरण और
औपग्रहिक-उपधि विशेष उपकरण दोनों प्रकार के उपकरणों को लेने और रखने में इस विधि का प्रयोग करे।34 सदा सम्यक् प्रवृत्त और यतना शील यति दोनों प्रकार के उपकरणों का चक्षु से प्रतिलेखन कर तथा रजोहरण आदि से प्रमार्जन कर उन्हें ले और रख ले। मुनि को प्रत्येक वस्तु याचित मिलती है। उसका पूर्ण उपभोग करना मुनि का कर्तव्य है किन्तु उसके लेने
और रखने में अहिंसा की दृष्टि होनी चाहिए। (5) उत्सर्ग समिति-उत्सर्ग सम्बन्धी अहिंसा का विवेका उच्चार, प्रश्रमण, श्लेष,
(4)