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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 187
करता है तो वह पूर्णता के लक्ष्य के अत्यधिक निकट पहुंच कर भी पतित हो सकता है।
ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्ति-निग्रह है। वह पांचों इन्द्रियों तथा मन के संयम के बिना प्राप्त नहीं होता। इसलिए इसका अर्थ सर्वेन्द्रिय संयमठ है। यह इन्द्रिय निग्रह वीतरागी के लिए आवश्यक है क्योंकि फिर उसके लिए इन्द्रिय विषय दुःख के हेतु नहीं रहते।48 राग ग्रस्त व्यक्ति के लिए वह परम दारुण परिणाम वाले हैं। इसलिए बन्धन और मुक्ति अपनी ही प्रवृत्ति पर अवलम्बित है। जो साधक इन्द्रियों के विषयों के प्रति विरक्त है, उसे उनकी मनोज्ञता या अमनोज्ञता नहीं सताती। उसमें समता का विकास होता है। साम्य के विकास से कामगुणों की तृष्णा का नाश होता है और साधक उत्तरोत्तर गुणस्थानों में आरोह करता हुआ लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
(1) स्पर्शन इन्द्रिय : स्पर्शन इन्द्रिय संयम के लिए शयनासन और एक आसन
पर बैठना वर्जित है। (2) रसन इन्द्रिय संयम : इसके लिए सरस और अति मात्रा में आहार करना
वर्जित है। (3) प्राण-इन्द्रिय संयम : इसके लिए कोई पृथक भाग निर्दिष्ट नहीं है। (4) चक्षु-इन्द्रिय संयम : इस संयम के लिए स्त्री व उसके हाव-भाव का निरीक्षण
वर्जित है। (5) श्रोत्र इन्द्रिय संयम : इस संयम के लिए हास्य विलास पूर्ण शब्दों का सुनना
वर्जित है। (6) मानसिक संयम : इसके लिए काम कथा, पूर्व क्रीड़ा का स्मरण और विभूषा
वर्जित है।
जो असंयमी काम गुणों में आसक्त होता है वह क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुष वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद तथा हर्ष, विषाद आदि अनेक विकार उत्पनन होते हैं जिनसे वह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय बन जाता है। विकारों की प्राप्ति के पश्चात् उसके समक्ष उसे मोह महार्णव में डुबोने वाले विषय सेवन के प्रयोजन उपस्थित होते हैं। फिर वह सुख की प्राप्ति और द:ख के विनाश के लिए अनुरक्त बनकर उस प्रयोजन की पूर्ति के लिए उद्यम करता है। इसीलिए इन्द्रिय संयमी होना श्रमण के लिए आवश्यक है।