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178 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
(1) किसी चोर को स्वयं या दूसरे के द्वारा चोरी करने की प्रेरणा देना, उसकी प्रशंसा करना तथा चाकू, कैंची, आदि चोरी के औजारों को बेचना या चोरों को अपनी ओर से देना। चोर से कहना कि यदि तुम्हारे पास खाने को नहीं है, तो मैं खिलाता हूं, तुम्हारे माल की बिक्री नहीं हो रही है तो लाओ मैं खरीदता हूं अथवा बिकवाता हूं आदि बातें कहना भी चोरी ही है।
उक्त प्रकार के व्यवहार द्वारा यद्यपि चोर का हित साधन होता है तथापि उसके द्वारा सामाजिक अहित होता है और समाज में पीड़ा का प्रसार होता है । बात वही है - बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय । यदि व्यक्ति के मन में सदैव समाज के हित की बात रहे, सभी स्थितियों में वह सदा मोह मुक्त रहे, अहिंसा को आदर्श माने, तभी चोरी के पाप से भी बचा जा सकता है। (2) जो व्यक्ति चोरी का माल खरीदता है, वह कानून की नजर में भी चोर समझा जाता है अतः इस प्रकार का व्यापार चोरी से या छिपा कर किया जाता है।
(3) बांट, तराजू, गज, मीटर आदि की कीमत ज्यादा रखना । उससे दूसरों की हानि होती है और उन्हें कष्ट पहुंचता है। यह भी हिंसा है। कहा भी जाता है कि जो लेने और देने के बांट भिन्न रखता है वह चोर माना गया है।
(4) प्रायः व्यापारी लोग अधिक लाभांश कमाने के विचार से किसी वस्तु में उससे कम कीमत की वस्तु मिला देते हैं, यह भी हिंसा है क्योंकि इससे दूसरे की आर्थिक हानि भी होती है और जीवन से खिलवाड़ भी । जैन धर्म इन कार्यों को अनैतिक मान कर उनकी बारम्बार निन्दा करता है।
(5) युद्ध अथवा दुर्भिक्ष जैसे देवी प्रकोप के समय वस्तुओं का लोप हो जाना या मूल्य बढ़ाना, एक राज्य से दूसरे राज्य में चोरी छिपे निषिद्ध व्यवहार करना हिंसा है। क्योंकि इस व्यापार से सामान्य जन की हानि होती है, उन्हें कष्ट पहुंचता है तथा दुःख की मात्रा में वृद्धि होती है।
यह तो हुई व्यापार एवं बाह्य व्यवहार को लक्ष्य करके बताई गई चोरियां । इसके अतिरिक्त मानसिक रूप से भी चोरी की जाती है जैसे कर्तव्य का निर्वाह न करके थोथे आश्वासन देते रहना आदि। सारांश यह है कि किसी भी प्रकार की चोरी करना हिंसा है। धन मनुष्य का प्राण है। अतः जो किसी का धन हरता है वह उसके प्राण हरता है। यही कारण है कि जैन बिना दिये एक तिनका उठाना भी चोरी समझते हैं। अस्तेय की रक्षा के लिए पांच भावनाएं बताई गयी हैं
(1) अवग्रहानुज्ञापना : अवग्रह अर्थात् वस्तु लेते समय उसके स्वामी को अच्छी तरह जान कर आज्ञा मांगना ।