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10 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
लिखना संयम विराधना का हेतु है। 2. उनके छंदों की ठीक तरह पडिलेहना नहीं हो सकती। 3. पुस्तकों को ग्रामान्तर ले जाते हुए कन्धे छिल जाते हैं, व्रण हो जाते हैं। 4. वह कुन्थु आदि जीवों के आश्रय होने के कारण अधिकरण है अथवा चोर
आदि से चुराये जाने पर अधिकरण हो जाते हैं। 5. तीर्थंकरों ने पुस्तक नामक उपाधि रखने की आज्ञा नहीं दी है। 6. उनके पास में होते हुए सूत्र-गुणन में प्रमाद होता है, आदि।
साधु जितनी बार पुस्तकों को बांधते हैं, खोलते हैं और अक्षर लिखते हैं उन्हें उतने ही चतुरलघुकों का दण्ड आता है और आज्ञा आदि दोष लगते हैं। आचार्य भिक्षु के समय भी ऐसी मान्यता थी। उन्होंने इसका खण्डन किया है। डॉ० विन्टरनित्स ने लिखा है कि यद्यपि जैन धर्म बौद्ध धर्म से प्राचीन है तथापि जैनों का आगमिक साहित्य अपने प्राचीनतम रूप में हम तक नहीं आ सका। दुर्भाग्य है उसके कुछ भाग ही सुरक्षित रह सके और उनका वर्तमान रूप अपेक्षाकृत काफी अर्वाचीन है।
आगमों की प्राचीनता और प्रामाणिकता
इस संदर्भ में स्वयं श्वेताम्बर जैनों में निम्नलिखित परम्परा पायी जाती है। मूल सिद्धान्त चौदह पूर्वो में सुरक्षित हैं। महावीर ने स्वयं अपने शिष्य गणधरों को उनकी शिक्षा दी थी। किन्तु उन पूर्वो का ज्ञान शीघ्र ही नष्ट हो गया। महावीर के शिष्यों में से केवल एक ने इस ज्ञान परम्परा को आगे चलाया। किन्त वह केवल छ: पीढ़ी तक ही आगे चल सकी। महावीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी में मगध देश में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा जो बारह वर्ष में जाकर समाप्त हुआ। उस समय चन्द्रगुप्त मौर्य मगध का राजा था और स्थविर भद्रबाहु जैन संघ के प्रधान थे। भद्रबाहु द्वादशांगश्रुत के अन्तिम प्रामाणिक उत्तराधिकारी श्रुतकेवली थे। बौद्धसंगीति की तरह पाटलिपुत्र में जो प्रथम वाचना हुई, कहा जाता है कि वह उनकी अनुपस्थिति में ही हुई और उसमें भी केवल ग्यारह अंगों का ही संकलन किया जा सका। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बारहवां अंग संकलित नहीं हो सका क्योंकि उसका जानकार श्रुतकेवली भद्रबाहु के अतिरिक्त कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था। __ भद्रबाहु के पश्चात् जैन संघ दिगम्बर और श्वेताम्बर पंथ में विभाजित हो गया और दोनों की गुरुपरम्परा भी भिन्न हो गयी। सम्भवतः श्रुतकेवली भद्रबाहु का उत्तराधिकार दोनों ही परम्पराओं को प्राप्त हुआ था। फलत: दिगम्बर परम्परा में