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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 27 अत: वर्तमान में द्वितीय श्रुत स्कन्ध में केवल चार चूलिकाएं हैं। 49 आचारांग चूर्णि के चूर्णिकार तथा शीलांकाचार्य दोनों ने केवल इसकी चार चूलाओं तक ही भाष्य लिखा है। प्रथम अध्ययन पिण्डैषणा है। इसमें बताया गया है कि साधु को किस प्रकार का आहार लेना चाहिए और आहार के कितने दोष हैं। साधु इन दोषों से रहित आहार ग्रहण करे। इस अध्ययन में कुछ अपवादों का उल्लेख है। जैसे यदि दुर्भिक्ष आदि के अवसर पर गृहपति ने मुनि को आहार दिया और अपने द्वार पर खड़े अनेक भिक्षुओं को देखकर कहा कि तुम यह सब आहार साथ बैठकर खा लेना। जैन साधु अन्य सम्प्रदाय के साधुओं को आहार नहीं देते न उसके साथ बैठकर खाते हैं। परन्तु द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दसवें उद्देशक में यह स्पष्ट आदेश दिया गया है कि ऐसे अपवाद मार्ग में साधु यदि सब भिक्षु चाहें तो साथ बैठकर खा लें। तब जैन श्रमण सबके साथ भोजन कर सकता है। यदि वे अपना भाग चाहते हों तो, सबको बराबर भाग दे दे। इसमें अन्य अपवादों का भी उल्लेख है
और उसे उत्कर्ष की तरह माना है, उन्मार्ग नहीं। अपवादों के लिए आगम में कहीं भी प्रायश्चित का विधान नहीं है।
दूसरे अध्ययन में शय्या के सम्बन्ध में, तीसरे में ईर्या, चौथे में भाषा, पांचवें में वस्त्र, छठे में पात्र, सातवें में मकान, आठवें में खड़े रहने के स्थान, नौवें में स्वाध्याय, दसवें में मलमूत्र त्यागने की भूमि के विषय में आदेश है कि उनमें दोष से बचना चाहिए। चतुर्थ अध्ययन में बताया है कि साधु ने विहार करते समय जंगल में मृग को जाते हुए देखा हो और उसके निकल जाने के बाद शिकारी जा पहुंचे और मुनि से पूछे कि मृग किधर गया है, उस समय मुनि मौन रहे। यदि शिकारी के विवश करने पर बोलना पड़े तो जानते हए भी कहे कि मैं नहीं जानता 'जाणं वा णाजाणंति वदेजा' क्योंकि निर्दोष की प्राणरक्षा सत्य वचन की रक्षा है. अधिक मूल्यवान है। ___ग्यारहवें और बारहवें अध्ययन में शब्द की मधुरता एवं सौन्दर्य में आसक्त नहीं होने का उपदेश दिया गया है। तेरहवें अध्ययन में बताया गया है कि दूसरे व्यक्ति द्वारा की जाने वाली क्रिया में मुनि को किसी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। चौदहवें अध्ययन में बताया गया है कि मुनियों में परस्पर होने वाली क्रियाओं में उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए। पन्द्रहवें अध्ययन में महावीर के जीवन और पच्चीस भावनाओं का वर्णन है। सोलहवें अध्ययन में हितप्रद शिक्षा दी गयी है।
डा० जैकोबी,150 विन्टरनित्स51 आदि का मत है कि प्रथम श्रुत स्कन्ध दूसरे से प्राचीन है, तथापि पहले में विरुद्ध जातीय तत्वों को एकत्र करने का प्रयास किया गया है। सूत्र गद्य-रूप भी है और पद्य-रूप भी है जैसा कि बौद्ध साहित्य में प्राय: पाया जाता है। कभी दूर तक गद्यात्मक सूत्र चले गये हैं, तो कभी गद्य