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आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 77
हो सकते। इसलिए आत्मा को एकान्त कूटस्थ नित्य मानना गलत है। वस्तुतः प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है, भिन्न-भिन्न है इसलिए स्वकर्मानुसार प्रत्येक आत्मा अपना अपना सुख-दुःख भोगता है। आत्मा का निजी गुण चैतन्य शरीर पर्यन्त ही पाया जाता है इसलिए वह शरीर मात्र व्यापी है तथा कारण में कार्य द्रव्य रूप से ही रहता है। आत्मा नाना गतियों में जाता है, इसलिए वह परिणामी है, कूटस्थ नित्य नहीं। अत: आर्हत दर्शन ही युक्ति संगत और मान्य है, सांख्यदर्शन और आत्माद्वैतवाद नहीं।
हस्तितापस
जैन मतावलम्बी आर्द्रक मुनि से वाद-विवाद के प्रसंग में सूत्रकृतांग में हस्तितापसों की चर्चा मिलती है।19 हस्तितापस आर्द्रक मुनि से जैन धर्म छोड़कर उनका धर्म स्वीकार करने का आग्रह करते हुए युक्ति देते हैं कि बुद्धिमान मनुष्य को सदा अल्पत्व और बहुत्व का विचार करना चाहिए। जो कन्दमूल, फल आदि खाकर निर्वाह करते हैं, वह स्थावर प्राणियों को तथा उनके आश्रित अनेक जंगमप्राणियों का संहार करते हैं। गुल्लर आदि में अनेक जंगम प्राणी अपना डेरा जमाए रहते हैं, अत: उनको खाने वाले जंगमप्राणियों का संहार करते हैं। जो लोग भिक्षा से अपना निर्वाह करते हैं, वह भिक्षा के लिए इधर-उधर जाते समय चींटी आदि अनेक प्राणियों का घात कर देते हैं तथा भिक्षा की कामना से उनका चित्त भी दूषित रहता है। जबकि हस्तितापस वर्ष में एक भारीभरकम हाथी को बाण से मारकर उसके मांस से वर्षभर तक अपना निर्वाह कर लेते हैं। ऐसा करके वह अन्य समस्त जीवों की रक्षा कर लेते हैं तथा उन्हें अभयदान देते हैं।
इसका प्रत्याख्यान करते हुए जैन मुनि कहते हैं कि हिंसा-अहिंसा की न्यूनाधिकता का नाप-तौल मृत जीवों की संख्या के आधार पर नहीं किया जाता है अपितु यह आधार है प्राणी की चेतना, इन्द्रियों, मन, शरीर आदि का विकास। यदि कोई वर्ष भर में सिर्फ एक विशालकाय जीव मारता है तो भी वह हिंसा के दोष से कदापि नहीं बच सकता। उस पर भी हाथी जैसे पंचेन्द्रिय जीव के लिए तो यह असम्भव ही है। जो श्रमण धर्म में प्रवजित है वह सूर्य की किरणों से स्पष्ट नजर आने वाले मार्ग पर गाड़ी के जुए जितनी लम्बी दृष्टि रख कर चलते हैं। वह इर्या समिति से युक्त होकर बयालीस भिक्षादोषों से वर्जित करके आहारादि ग्रहण करते हैं। वह लाभ-अलाभ दोनों में सम रहते हैं। अत: उनके द्वारा चींटी आदि प्राणियों का घात भी सम्भव नहीं है। उन्हें अहिंसा का दोष भी नहीं लगता। हस्तितापस अल्पजीवों के घात को पाप नहीं मानते, यह मान्यता भी ठीक नहीं है। एक महाकाय प्राणी का घात करने से मात्र एक ही प्राणी का घात नहीं होता, अपितु