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132 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
के मूल में वैराग्य एवं अहिंसा के उदात्त आदर्श थे।
श्रमण ऐसा भोजन स्वीकार नहीं कर सकते थे जो विशेष रूप से उनके लिए बनाया गया हो।
बृहत्कल्पभाष्य में इन छियालीस नियमों के उल्लंघन के लिए प्रायश्चित्त बताये गये हैं।232 दश वैकालिक के अनुसार भिक्षु को अपना भोजन वैसे ही पाना चाहिए जैसे कि एक मधुमक्खी फूल से शहद ले लेती है किन्तु फूल को कोई कष्ट नहीं देती और फिर फूल से आसक्त नहीं रहती।233
इस प्रसंग में जैकोबी का यह मत उल्लेखनीय है कि जैन श्रमणों ने कुछ नियम ब्राह्मण संन्यासियों के अनुकरण पर स्वीकार किये थे जैसे कि उसे भोजन खाने दो, जो बिना याचना किये मिला हो, जिसके विषय में पहले कुछ भी निश्चय नहीं किया गया है, वह भोजन उसे आकस्मिक रूप में मिला है, वह भी केवल उतना कि प्राणों की रक्षा हो सके।234 ठीक यही नियम जैन श्रमण के लिए है। परिशुद्ध तथा ब्रह्मणीय भोजन के विषय में नियम अद्भुत साम्य रखते हैं। किन्तु प्रश्न यह है कि जैन निर्ग्रन्थों की ब्राह्मण संन्यासियों की यह अनुकृति प्रत्यक्ष है या परोक्ष बौद्धों के द्वारा अनुकृत होने पर की गयी। जैकोबी के मत में जैनों ने संन्यासियों से यह नियम स्वीकार किये न कि बौद्धों से क्योंकि बौद्ध उनके प्रतिद्वन्द्वी थे।35
पर्युषण अथवा वर्षावास
वर्षाकाल में भिक्षु को एक रात्रि गांव में तथा शेष नगर में रहकर व्यतीत करनी होती थी। इस समय गमनागमन नहीं करने का कारण यह था कि इस काल में उत्पन्न जीवों को कष्ट पहुंचाने से भिक्षु बच सकता था। वर्षा काल में अनेक जीवों का उद्भव होता है तथा अनेक बीज अंकुरित होते हैं, पगडण्डियों का प्रयोग नहीं हो पाता। अत: भिक्षुओं को ग्रामानुग्राम विहार नहीं करते हुए वर्षावास एक ही स्थान पर करना चाहिए।236 पांच कारणों से भिक्षु वर्षा में भ्रमण कर सकता था
(1) किसी विशेष ग्रन्थ के अध्ययन के लिए जो सिर्फ आचार्य को ज्ञात हो और
आचार्य आमरण अनशन कर रहे हों। (2) यदि वह ऐसे स्थान पर हो जहां पथभ्रष्ट होने का भय हो। (3) धर्म प्रचार के लिए। (4) यदि आचार्य या उपाध्याय की मृत्यु हो गयी हो अथवा (5) वह वर्षावास कर रहे हों तो उनकी सुश्रुषा के लिए।237