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156 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
23.
पृ० 1711 21. आचारांगसूत्र एस०बी०ई०जि० 22, पृ० 1941 22. भगवती सूत्र (के०सी० ललवाणी), पुस्तक-5, अध्याय-9, पृ० 228-301
वही, पुस्तक-1, अध्याय-9, पृ० 131-135: कालास्य वैशिकपुत्र चातुर्याम के साथ प्रतिक्रमण को भी स्वीकार कर पंचयाम अनुयायी बना। वह अनेकानेक वर्ष संघ में रहा। श्रमण के रूप में वह नग्न रहा, मुण्डित रहा, उसने केशलोंच किया, स्नान, दन्तधावन, जूता और छाता का परित्याग कर पूर्ण अपरिग्रही बना। सभी परिषहों में सम्यकत्व का
पालन कर कैवल्य को प्राप्त हुआ। 24. भगवती, 9/32: द्र० उत्तरज्झयणाणि सानवाद. पृ० 2991 25. सूत्रकृतांग, 2/7 (एस०बी०ई०), जि० 45, पृ० 420-351 26. के०सी० ललवाणी के अनुसार महावीर ने पांचवां याम पृथक रूप से निर्धारित नहीं किया
था अपितु पार्श्व के चौथे याम सर्ववहिद्धादाण विरमण के ही दो भाग कर उत्तरवर्ती को पांचवां बना दिया। यह थे उपकरण परित्याग तथा ब्रह्मचर्य। महावीर को ब्रह्मचर्य को पांचवां व्रत इसलिए बनाना पड़ा क्योंकि उनके समय तक श्रमण बहुत धूर्त हो गये थे।
द्र० भगवतीसूत्र, भाग-1, पृ० 268-691 27. भगवान प्रारम्भ में सचेल थे। एक देवदूष्य धारण करते थे। तदनन्तर वह अचेल बने और
जीवन भर अचेल रहे। किन्तु उन्होंने सचेल और अचेल किसी एक को एकांगी मान्यता नहीं दी। दोनों के अस्तित्व को स्वीकार कर उन्होंने संघ का विस्तार किया। आयारो,
पृ० 319 तथा 343। 28. मूलाचार, 7/36-38, द्र० उत्तरज्झयणाणि सानु० कलकत्ता, पृ० 302। 29. महावीर द्वारा प्रवर्तित पंच महाव्रत धर्म भी मूलरूप में ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित था।
श्रमणधर्म पांच व्रतों पर ऋषभ के समय से आधारित था। बाईस तीर्थंकरों के समय यह चातुर्याम बन कर रहा तथा महावीर ने पुन: पंचयाम बनाया क्योंकि उनके समय श्रमण बहुत पाखण्डी व धूर्त बन गए थे। अत: महावीर को हर नियम को कसना पड़ा तो नियम पुन: पांच हो गये। बीच के बाईस तीर्थंकरों के समय श्रमण ऋजुप्राज्ञ थे अत: चार नियम ही
पर्याप्त थे। द्र० भगवतीसूत्र (के०सी० ललवाणी), पृ० 3511 30. इण्डियन एण्टीक्वेरी जि० 9, 1880, पृ० 162, जैकोबी का जैनसूत्रों का परिचय:
एस० बी०ई०जि० 45, पृ० 14-15: जि० 22, पृ० 34-401 31. द्र० एस० बी० देव, हिस्ट्री आफ जैन मोनेकिज्म, पृ० 621 32. कल्पसूत्र : (एस०बी०ई०),जि० 22, पृ० 2741 33. जैन तीर्थयात्री तंगीय का बिहार से समीकरण करते हैं। द्र० जगदीश चन्द्र जैन, लाइफ इन
एशेन्ट इण्डिया - एज डिपिक्टेड इन दी अर्ली जैन कैनन्स, पृ० 3451 34. द्र० भगवतीसूत्र के०सी० ललवाणी, जि० 1, पृ० 188-198। 35. साध्वी कनक श्री, महावीर की संघ व्यवस्था का प्रारूप और विकास तुलसी प्रज्ञा, अप्रैल
जून 1974, पृ० 521 36. चउविहे सधे पणते, ताम जाहा समणा, समणिओ, सावग, सवियाओ। 37. जी०एस०पी मिश्र, सम रिफलैक्शन्स आन अर्ली जैन एण्ड बुद्धिस्ट मोनैकिज्म ,
जिज्ञासा, अंक-1, जुलाई-अक्टूबर 1974, पृ० 7। 38. एस० गोपालन : आउटलाइन्स आफ जैनिज्म, पृ० 33, पाद टिप्पणी 7: श्रमणसंघ में
गृहत्यागी पंच महाव्रतों को स्वीकार करता था। श्रावक संघ गृहत्याग नहीं करता था। यह