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164 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
दो अर्थों में प्रयुक्त होता है - 1. सदा गुरु के समीप या समक्ष रहना जिससे समय पर गुरु की सेवा कर सके तथा उन्हें आवश्यक कार्यवश आवाज देकर इधर उधर से नहीं बुलाना पड़े तथा 2. उनकी आज्ञा में विचरण करना । क्षेत्र से परिस्थितिवश दूर रह कर भी सदा उनका अनुगमन करना।
177. उत्तरज्झयणाणि सानु० 1 / 18, 20, 30 तथा 17 / 13 पृ० 215 1
178. वही, पृ० 12, 14 पृ० 215-18।
179. वही, पृ० 217 ।
180. उत्तराध्ययन एस० बी०ई० जि० 45, पृ० 79 सू० 17।
181. वही, पृ० 1, 2 सू० 3,4,71
182. ठाणं सं० मुनि नथमल, लाडनूं, 4/258 : उत्तराध्ययन एस० बी०ई० जि० 45, पृ०
143-44 अध्ययन 261
183. उत्तराध्ययन एस० बी०ई० जि० 45, पृ० 354, सू० 2571 184. वही, सू० 256
185. सुश्रुत संहिता, 2/9/10: तुलनीय स्थानांगसूत्र, 10/20-211
विशेष विस्तार के लिए द्र० ठाणं लाडनू संस्करण, पृ० 964-70। 186. उत्तरज्झयणाणि सानु०, पृ० 11 सू० 131
187. वही : ठाणं लाडनूं 5/49, पृ० 5591
188. तीन वाचना देने अर्थात् अध्यापन के अयोग्य हैं - 1. अविनीत, 2. विकृति में प्रतिबद्ध रसलोलुप एवं 3. अव्यवशमित प्राभृत अर्थात् कलह को उपशान्त न रहने करने वाला ठाणं, 3/76-771
189. इच्छा आदि का समाचरण वर्णित होने के कारण इसे सामाचरी कहा गया है।
190. ओघ सामाचारी का अन्तर्भाव धर्मकथनानुयोग में होता है और पद विभाग का करणानुयोग में। उत्तराध्ययन धर्मकथनानुयोग के अन्तर्गत है ।
191. (i) आवश्यकी और नैषेधिकी से निष्प्रयोजन गमनागमन करने पर नियन्त्रण रखने की आदत पनपती है, (ii) मिच्छाचारी से पापों के प्रति सजगता के भाव पनपते हैं, (iii) आपृच्छा और प्रतिपृच्छा से श्रमशीलता तथा दूसरों के लिए उपयोगी बनने के भाव जगते हैं, (iv) छन्दना से अतिथि सत्कार की प्रवृत्ति बढ़ती है, (v) इच्छाकार से दूसरे के अनुग्रह को सहर्ष स्वीकार करने तथा अपने अनुग्रह में परिवर्तन करने की कला आती है। परम्परानुग्रह संघीय जीवन का अनिवार्य तत्व है, और (vi) उपसम्पदा से परस्परग्रहण की अभिलाषा उत्पन्न होती है।
192. उत्तरज्झयणाणि सटि०, पृ० 178 |
193. वही, पृ० 179
194. उत्तराध्ययन एस० बी०ई० जि० 45, पृ० 142 195. उत्तरज्झयणाणि सटिप्पण, पृ० 3501 196. वही, पृ० 1801
197. ठाणं लाडनूं संस्करण, 3/353, पृ० 221
आचार्यत्व की, 2. उपाध्यायत्व की एवं 3. गणीत्व की । पृ० 275 टिप्पण 631
198. उत्तरज्झयणाणि सटिप्पण, पृ० 180
199 विशेषावश्यक भाष्य, रतलाम, 7।
200. दयानन्द भार्गव, जैन इथिक्स, पृ० 1501
उपसम्पदा तीन प्रकार की होती है - 1.