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अध्याय 4
जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप
नीतिशास्त्र का प्रमुख कार्य जीवन के साध्य का निर्धारण करना और उस संदर्भ में व्यक्ति के आचरण का मूल्यांकन करना है। आचार और विचार जीवन रथ के दो चक्र हैं। वे अन्योन्याश्रित हैं। दोनों के सम्यक् एवं सन्तुलित विकास द्वारा ही व्यक्तित्व का विकास सम्भव होता है। इसे क्रिया और ज्ञान का सन्तुलित विकास कहा जा सकता है।
आचार और विचार की अन्योन्याश्रिता को दृष्टि में रखते हुए भारतीय चिन्तकों ने दर्शन और धर्म का साथ-साथ निरूपण किया है। ज्ञानहीन आचरण अन्धे व्यक्ति के समान है तथा आचरण रहित ज्ञान पंगु पुरुष के सदृश है। ___ बौद्ध परम्परा में हीनयान आचार प्रधान है तथा महायान विचार प्रधान। जैन परम्परा में भी आचार और विचार को समान महत्व दिया गया है। अहिंसा मूलक आचार एवं अनेकान्त मूलक विचार का प्रतिपादन जैन चिन्तन धारा की विशेषता
जैनाचार का प्राण : अहिंसा
जैनाचार का प्राण अहिंसा है। मन, वचन तथा कर्म से पूर्ण अहिंसा आदर्श है। अहिंसा का जितना और जैसा सूक्ष्म विवेचन एवं आचरण निरूपण जैन परम्परा के अन्तर्गत होता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं होता है। अहिंसा का मूलाधार आत्मसाम्य है। वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों से लेकर मानव तक के प्रति अहिंसक आचरण की भावना जैन परम्परा की विशेषता है। अहिंसा मूलक सदाचार का यह विकास जैन संस्कृति की अमूल्य निधि है। अहिंसा को ही केन्द्र बिन्दु मानकर अमृषावाद, अस्तेय, अमैथुन एवं अपरिग्रह के सिद्धान्तों का विकास हुआ।