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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप. 173
पांच महाव्रत
सर्वविरति अर्थात् सर्वत्याग रूप महाव्रत पांच हैं जिनका विधान श्रमण, भिक्षु, निर्ग्रन्थ, मुनि, अनगार, संयत, विरत आदि यह सब एकार्थक हैं के लिए किया गया है।
(1) सर्वप्राणातिपात विरमण-अर्थात् सम्पूर्ण हिंसा का पूर्णतः त्याग। (2) सर्वमृषावाद विरमण-अर्थात् सब प्रकार के झूठ का पूर्ण त्याग। (3) सर्वअदतादान विरमण-अर्थात् सब प्रकार की चोरी का पूर्ण त्याग। (4) सर्वपरिग्रह विरमण–अर्थात् सब प्रकार के संग्रह अथवा आसक्ति का पूर्णत:
त्याग। इस प्रकार के त्याग में मन, वचन, काम और रूप तीनों का अन्तर्भाव
है, अतएव इस प्रकार के त्याग को नवकोटि-प्रत्यास्थान भी कहते हैं। (5) सर्वमैथुन विरमण-अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन।
सर्वप्राणातिपात विरमण
सर्वप्राणातिपात विरपण अर्थात् अहिंसा जैनाचार का मूल है। भगवान पार्श्वनाथ ने इसे परम धर्म और परम ब्रह्म दोनों बताया है। अहिंसा ही मानव का सच्चा धर्म है। अहिंसा ही सुख शान्ति देने वाली है और इसी के द्वारा संसार का त्राण और समाज का कल्याण संभव है। पार्श्वनाथ की अहिंसा वीरों का बाना है, इसके बिना मानव की मानवता असंभव है। उनके विचार से मानव और दानव में केवल अहिंसा का ही अन्तर है। दानवता से त्राण पाने का केवल एक उपाय है जीओ और जीने दो। अहिंसा बाह्य कम आन्तरिक अधिक होती है। हमारा चिन्तन ही हमारे व्यवहार के रूप का निर्धारण करता है। इसके लिए हमें यह मानना होगा कि जीव मात्र चाहे वह वनस्पति हो या जन्तु सभी प्राण धारण करते हैं तथा दुःख-सुख की अनुभूति करते हैं। शंका की जाती है कि जल में जन्तु हैं, स्थल में जन्तु हैं और आकाश में भी जन्तु हैं। इस प्रकार समस्त लोक जन्तुओं से भरा है तो मुनि क्यों कर अहिंसक हो सकता है ? इसका उत्तर इस प्रकार है कि जीव दो प्रकार के हैं, सूक्ष्म और वादर या स्थूल। जो जीव सूक्ष्म अर्थात् अदृश्य होते हैं वह न तो किसी से रुकते हैं और न रोकते हैं, उन्हें तो कोई पीड़ा दी ही नहीं जा सकती। जहां तक स्थूल जीवों का प्रश्न है, उनमें जिनकी रक्षा की जा सकती है उनकी की जाती है। अत: जिसने अपने को संयत कर लिया है, उसे हिंसा का पाप कैसे लग सकता है।'
स्पष्ट है कि जो व्यक्ति जीव को बचाने का भाव रखता है, वह अपना प्रत्येक कार्य ऐसी सावधानी से करता है कि उसके द्वारा किसी को कष्ट नहीं पहुंचे। अहिंसा