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जैन संघ का स्वरूप • 163
155. श्री स्थानांगसूत्र, पृ० 129: द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 143। 156. वही, पृ० 240: द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 143: सूत्रकृतांग एस० बी०ई०
जि० 22, पृ० 277,4/2/13 में श्रमणो शब्द प्रयुक्त हुआ है। जबकि स्थानांगसूत्र में
अन्तेवासी शब्द मिलता है। ठाणं, 4/424-25, पृ० 516-171 157. अन्तेवासी उस शिष्य को कहते थे जिसे गुरु की निकटता प्राप्त हो जाये, जो गुरु के
विचार एवं आज्ञा से दूर नहीं जाता। अतः श्रुतज्ञान प्राप्ति के इच्छुक को द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से गुरु के निकट रहना चाहिए। व्यवस्था के लिए देखें-आचारांगसूत्र, प्रथम
श्रुत स्कन्ध श्री आत्मारामजी महाराज पृ० 11। 158. आयारो, पृ० 171-72 सूत्र 401 159. ठाणं लाडनूं संस्करण, 3/476 पृ० 2471 160. जैनों में इसे उवत्थावण कहा जाता है। यह एक प्रकार से पुष्टिकरण है। द्र० हिस्ट्री आफ
जैन मोनैकिज्म, पृ० 1431 161. बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० 140: दी एज आफ विनय, पृ० 117। 162. सांख्यायनगृहसूत्र एस०बी०ई० जि० 24, पृ० 65: आश्वलायन गृहसूत्र एस०बी०ई०
जि० 24, पृ० 190 तथा हिरण्यकेशीगृहसूत्र एस० बी०ई० जि० 30, पृ० 152:
तुलनीय, महावग्ग नालन्दा संस्करण, पृ० 43। 163. उत्तराध्ययन, 11/32, आमुख : उत्तरज्झयणाणि सानुवाद, पृ० 1321 164. सूयं में भविस्सह त्ति अज्झइयत्वं भवइ।
एगग्गचित्तोभविस्सामि त्ति अज्झाइयत्वं भवइ।
अप्पाणं भवइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। ठिओ पर भवइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वयं भवइ।
-दशवैकालिक लाडनं संस्करण, 9/4/1, पृ०59-601 165. उत्तरज्झयणाणि सानुवाद, 11/4-5 पृ० 132।। 166. अह पंचदि ठाणेहिजेहि सिक्खा न लब्मई।
थम्मा कोहा परमाएणं, रोगेणा लस्साएण य।। उत्तराध्ययन 11/3 वही। 167. व्याधिस्यान संशयमभदालस्याविरतिम्रन्ति दर्शना लब्धभूमिक्त्वान वस्थित्वानी चित
_ विक्षेपास्तेन्तराया: - पातंजल योगदर्शन, 1/30। 168. उत्तरज्झयणाणि सानुवाद, पृ० 2081 169. आचारांगसूत्र (एस०बी०ई०) जि० 22, पृ० 1991 170. उत्तराध्ययन एस०बी०ई० जि०45.16/10. पृ0751 171. वही, 16/1-13, पृ० 75-77 तथा दशवैकालिक सं० मुनि नथमल, लाडनूं, अध्ययन -
9, उद्देशक 1-4, पृ० 51-60। उत्तरज्झयणणि 1/26 तथा 2/16-17, 8/18-19, पृ०
11, 29, 102। 172. जैन तथा बौद्धमत में विनय अनुशासन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 173. उत्तरज्झयणाणि सानुवाद, पृ० 7 सूत्र 2,3, 8-101 174. वही, पृ० 9 सू० 12-13, पृ० 10 सू० 36, पृ० 13 सू० 41। 175. वही, पृ० 14 सू० 46। 176. वही, पृ० 10, 20 तथा 21। आचारांगसूत्र जैनागम प्रकाशन समिति, लुधियाना 1963
प्रथम अध्याय पृ० 11 - श्रुत ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु चरण सेवा ही पर्याप्त नहीं समझी गयी है। परन्तु उनके निकट रहना भी उतना ही आवश्यक है। गुरु के निकट रहना