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जैन संघ का स्वरूप • 161
"अप्तदीपो भवो, आत्माना गवेसेय्याथ, यो धम्म पस्सति, सो मां पस्सति।' भिक्षु प्रतिमोक्ष के नियमों से भी अनुशासित हो सकते थे प्रातिमोक्खसंवरसंवुतो। बुद्ध एक व्यक्ति के प्रतिनिष्ठा की व्यर्थता तथा व्यक्ति पूजा से होने वाली हानि अपने प्रज्ञा चक्षु से देखते थे-अंगुत्तरनिकाय पाली टैक्सट सोसायटी, पृ० 103:द्र० दी एज आफ विनय,
पृ० 108-9। 115. वही, पृ० 108-1101 116. जिज्ञासा नं० 3-4, जुलाई अक्टूबर 1974, पृ० 17। 117. द्र० तुलसी प्रज्ञा, जनवरी-मार्च 1976, पृ० 63। 118. वही। 119. वही। 120. व्यवहार भाष्य गाथा, 328,331। 121. वही, द्र० तुलसी प्रज्ञा, जनवरी-मार्च 1976, पृ० 62। 122. व्यवहार सूत्र, 26-32। 123. व्यवहार भाष्य गाथा 1 124.व्यवहार भाष्य, 4/111 125. ठाणं लाडनूं संस्करण 10/15, पृ० 904, अधिक विस्तार के लिए द्र० पृ० 952-9591
इसी प्रकार प्रव्रज्या कितने प्रकार की होती है, विस्तृत विवरण के लिए द्र० ठाणं 3/180
83 तथा 4/571 से 577 पृ० 187-88 तथा पृ० 459-461। 126. मूल जैन धर्म जातिवाद का विरोधी था। हरिकेशिन जो कि परिहार निम्न जाति का था उसे
संघ में प्रवेश दिया गया तथा अन्यों के लिए भी संघ प्रवेश के द्वार खोल दिये थे। द्र० उत्तराध्ययन एस०बी०ई० जि० 45, पृ० 50: चित्र और सम्भूत दो चाण्डालों का संघ
प्रवेश भी ऐसा ही दृष्टान्त है। उत्तराध्ययन, वही, पृ० 56-571 127. उत्तराध्ययन एस०बी०ई० जि० 45, अध्ययन 8। कौशाम्बी के ब्राह्मण कपिल का
उदाहरण जो स्वयं सम्बुद्ध बन गया और पांच हजार ब्राह्मणों को प्रवजित किया। 128. ठाणं लाडनूं संस्करण 3/474-75, पृ० 247। 129. बालक का प्रव्रज्या देने में अनेक कठिनाइयां थीं। लोग बालक को श्रमणों के साथ देखकर
उपहास करने लगते कि यह बालक उनके ब्रह्मचर्य का फल मालूम होता है। बालक के कारण विहार में अन्तराय होता है, रात्रि में वह भोजन भांगता है। श्रमणों की निन्दा जनसामान्य बालक का चारगपाल (जेलर) कहकर करते हैं, जैन आगम साहित्य में
भारतीय समाज, पृ० 3841 130. द्र० वही तथा दयानन्द भार्गव, जैन इथिक्स, पृ० 148। 131. देव, हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 139-40, पादटिप्पण 3। 132. जैन इथिक्स, पृ० 1491 133. धर्मसंग्रह-3, 73-78 पृ० 1 श्री जैन सिद्धान्त--बालसंग्रह से उद्धृत खण्ड, 1 पृ० 1581 134. हिन्दू संन्यासियों के लिए लिखी गई पुस्तक “नारदपरिवाजकोपनिषद' में लगभग यही
पात्रताएं संन्यास के लिए रखी गयी हैं। यद्यपि इसमें कुछ साम्प्रदायिक सन्दर्भ भी हैं जो जैन श्रमण के लिए अप्रासंगिक हैं। द्र० माइनर उपनिषद्स, मद्रास 19/12 खण्ड-1, पृ०
136-371 135. प्रवचन सारोद्धार : गाथा 890-91, पृ० 228 का 136. दीर्घ निकाय, 1-51