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जैन संघ का स्वरूप. 165
201. बृहत्कल्पभाष्य जि० 5,5290 द्र० जैन इथिक्स, पृ० 150। 202. व्यवहार में पटल और चोलपट्ट का उपयोग जननेन्द्रिय को ढकने के लिए किया जाता था।
द्र० कामता प्रसाद जैन, जैन एण्टीक्वेरी, जि० 9, नं० 111 203. शिथिल साधुओं में सारूपिक, सिद्धपुत्र, असोवेग्न, पार्श्वस्थ आदि उल्लेखनीय हैं। 204. वस्त्रों के साथ चौदह उपकरण रखने वाले श्वेताम्बर कहलाते थे। हरिभद्रसूरि ने इन्हें
क्लीवकायर कहा है। द्र० राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी, जैन धर्म, पृ० 65। 205. व्यवहार भाष्य, 8/250 आदि : द्र० जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० 3921 206. बृहत्कल्पभाष्य 3/4263,द्र० वही। 207. पहला वस्त्र विहार में पहनने के लिए, दूसरा तथा तीसरा वस्त्र विहार से बाहर जाते समय
पहने तथा चौथा सभा में पहने। - उत्तराध्ययन एस०बी०ई० जि० 45, पृ० 1571 208. वस्त्र न धोए, न रंगे और न धोए रंगे वस्त्रों को धारण करे। यह यथापरिग्रहीत वस्त्र की
व्यवस्था है। यह निषेध विभूषा की दृष्टि से किया गया है। निसीहज्झयणं 16/154: द्र०
आयारो, पृ० 313-141 209. आचारांग (एस० बी०ई०), जि० 22, पृ० 158 तथा आयारो, पृ० 313-14 भिक्षु के
लिए तीन शाटक उत्तरीय, प्रावरण या पछेवड़ी रखने का विधान है। उसमें दो सूती और
एक ऊनी होना चाहिए। सर्दी के अनुपात में इन्हें ओढ़ने की परम्परा रही है। 210. वस्त्र निरीक्षण का कारण यह है कि उसमें स्वर्ण या आभूषण छुपा रह सकता है जो श्रमण
के मन में विकार उत्पन्न कर सकता है। जीव, बीज या अण्डा रह सकता है, जिससे हिंसा
का भय रहता है - जैकोबी एस० बी०ई०, जि० 22, पृ० 161। 211. आचारांग एस०बी०ई० जि० 22, पृ० 161 (15)। 212. अवम गणना और प्रमाण दो दृष्टियों से विवक्षित है। गणना की दृष्टि से तीन वस्त्र रखने
वाला अवमचेलिक होता है। प्रमाण की दृष्टि से दो रत्नी मुट्ठी बंधा हुआ हाथ और घुटने
से कटि तक चौड़ा वस्त्र रखने वाला अवम चेलिक होता है - द्र० आयारो, पृ० 313-14। 213. हेमन्त ऋतु के बीत जाने पर वस्त्रों को धारण करने की विधि इस प्रकार है - ग्रीष्म ऋतु
आने पर तीनों वस्त्रों को विसर्जित कर दें। सर्दी के अनुपात में दो फिर एक वस्त्र रखे। सर्दी का अत्यन्त अभाव हो जाने पर अचेल हो जाये। यह सर्दी की दृष्टि से वस्त्र विसर्जन की
विधि है। 214. यदि वह वस्त्र जीर्ण हो गये हों - आगामी हेमन्त ऋतु में काम आने योग्य नहीं हो तो उन
तीनों वस्त्रों को विसर्जित कर दे और शेष को धारण करें। किन्तु उन्हें काम में नहीं ले। यदि एक वस्त्र अधिक जीर्ण है तो उसे विसर्जित कर दें, अन्य को धारण करे। तीनों अतिजीर्ण
हों तो तीनों को विसर्जित कर दें। 215. दयानन्द भार्गव, जैन इथिक्स, पृ० 171। 216. हरिदत्तशर्मा, कन्ट्रीब्यूशन टू दी हिस्ट्री आफ ब्राह्म॑निकल एसेटिसिज्म, पूना 1939,
पृ० 411 217. आचारसार, 8/14-15: अनागार धर्मामृत, 5/2-38 : द्र० जैन इथिक्स, पृ० 171 तथा
उत्तराध्ययन एस० बी०ई० जि० 45, पृ० 131 पाद टिप्पण 71 218. दोषयुक्त भोजन की चार श्रेणियां बतायी गयी हैं -
1. एषणा उद्गमदोष, 2. गवैषणा उत्पादन दोष, 3. ग्रहणेषणा, 4. परिभोगैषणा। इस प्रकार कुल मिलाकर भोजन सम्बन्धी छियालीस दोष हैं जिनका परिमार्जन आवश्यक है। जैकोबी, जैनसूत्रज, भाग-2, पृ० 131।