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जैन संघ का स्वरूप • 169
296. वही, 10-141 297. वही, पृ० 8-91 298. मूलाचार, 4, पृ० 80-81: द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 4991 299. मूलाचार 4/183-841 300. वही, 4/195: तुलनीय, बौद्ध ग्रन्थ पाचित्तिय संख्या 63-68: द्र० बौद्ध धर्म के विकास
का इतिहास, पृ० 1521 301. ठाणं (लाडनूं संस्करण), पृ० 980: निशीथभाष्यकार ने तीर्थकार की तुलना धन्वन्तरी से,
प्रायश्चित प्राप्त साधु की रोगी से, अपराधों की रोगों से और प्रायश्चित की औषध से
तुलना की है। निशीथभाष्यगाथा, 65071 302. द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 1521 303. ठाणं, 10/72 की टिप्पण 25, पृ० 980। 304. वही पृ० 916 तथा 8/19, पृ० 7971 305. वही, 8/18, पृ० 796 तथा 10/72, पृ० 917। 306. द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 152। 307. ठाणं, 10/70, पृ० 916। 308. वही, 10/73, 8/20, पृ० 797 तथा 917-प्रस्तुत सूत्र में स्खलना हो जाने पर मुनि के
लिए प्रायश्चित बताये गये हैं। अपराध की लघुता और गुरुता के आधार पर इनका प्रतिपादन हुआ है। लघुता और गुरुता का निर्णय द्रव्य, क्षेत्र और काल इन भावों के आधार
पर किया गया है। 309. नन्दकिशोर प्रसाद, स्टडीज इन बुद्धिस्ट एण्ड जैन मोनैकिज्म, पृ० 230-31। 310. भिक्षु जिनानन्द, चार बौद्ध परिषदें, पी०वी० बापट सम्पादित बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष
आजकल, वार्षिक अंक सितम्बर 1956 पृ० 29-30। आनन्द के अतिरिक्त इसी प्रसंग में
चन्न पर अभियोग तथा ब्रह्मदण्ड की सजा महत्वपूर्ण है। 311. तुलनीय, द्धितीय संगीति में करकण्डुकपुत्र यश पर वज्जि के भिक्षुओं ने समस्त संघ के
समक्ष अभियोग लगाया था। उसे पाटिसारणीयकम्म तथा उप्पेखणीय कम्म नामक दण्ड
दिया गया जिसका अर्थ संघ निष्कासन था। द्र० वही, पृ० 301 312. ठाणं, 3/473, पृ० 2471 313. वही, 3/472, पृ० 247। 314. वही, 5/47, पृ० 558। 315. स्थानांगवृत्ति, पत्र 2861 316. ठाणं,3/471, पृ० 2461 317. द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 104। 318. ठाणं, 4/133, पृ० 3261 319. तत्ववार्तिक में परिहार नामक प्रायश्चित का उल्लेख है जिसका उल्लेख श्वेताम्बर
परम्परा में नहीं है। इसका अर्थ है-पक्ष, मास आदि काल मर्यादा के अनुसार प्रायश्चित प्राप्त मुनि को संघ से बाहर रखना। पक्षमासादिविभागेन दूरतः परिवर्जनं परिहार:
तत्वार्थवार्तिक, 9/221 320. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 1541 321. द्र० जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ० 64। 322. ठाणं, 7/40-41-42, पृ० 751।