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160 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
94. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 1491 95. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 143-49 तथा डाक्ट्रिन आफ दी जैनज, पृ० 253
56: जिज्ञासा अंक 3-4, जुलाई-अक्टूबर, 1974, पृ० 101 96. साध्वी कनकनी, पूर्वोक्त, तुलसी प्रज्ञा, जनवरी-मार्च 1976, पृ० 37: व्यवहारभाष्य, 3/
11/12:4/111 97. इस चिन्तन में संशोधन की अपेक्षा है क्योंकि अंग साहित्य एवं उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों के
अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह व्यवस्थाएं महावीर कृत तो हैं ही नहीं, महावीर कालीन भी नहीं है। उनका सूत्रपात व विकास क्रमशः हुआ तथा आचार्य भद्रबाहु के समय तक इनकी पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी। उक्त पदों की जानकारी निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प
और दशाश्रुतस्कन्ध तथा उनके भाष्यों की चूर्णियों में मिलती है। कालक्रम से इन
पदाधिकारियों के दायित्व में संकोच, विस्तार और संक्रमण भी होता रहा है। 98. देखें, हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 151। 99. भगवती टीका पृ० 382: द्र० वही, पृ० 151 : स्थानांगवृत्ति, पत्र 489: ठाणं लाडनूं
संस्करण, पृ० 10121 100. उत्तराध्ययन टीका, उद्धृत, हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 151 : द्र० जिज्ञासा नं0 3.
4, जुलाई-अक्टूबर 1974, पृ० 8। 101. उत्तराध्ययन एस० बी०ई० जि० 45, पृ० 79 पाद टिप्पण 2, जैकोबी की व्याख्या। 102. द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 1501 103. द्र० जिज्ञासा नं0 3-4 जुलाई-अक्टूबर, 1974, पृ० 5। 104. द्र० डाक्ट्रिन आफ दी जैनज, पृ० 252: स्थानांग वृत्ति, पत्र 489: द्र० ठाणं लाडनूं
संस्करण, पृ० 10121 105. उत्तराध्ययन एस०बी०ई०, जि० 45, पृ० 79। 106. स्थानांग 7/1: ठाणं लाडनूं संस्करण, पृ० 713। 107. दशाश्रुतस्कन्ध, 2:5० उत्तरज्झयणाणि सटिप्पण 108. वृहदवृति, पत्र 435-361
स्वेच्दाप्रवृत्तया गाणंगणिएत्ति गणादगणं सा मासाम्यान्तर एवं संक्रामतीति गाणंगणिक हत्यागमिकी परिभाषा। तुल० जैकोबी की टिप्पणी : उत्तराध्ययन एस०बी०ई० जि० 45, पृ० 79: श्री स्थानांगसूत्र श्री अखिल भारत एस०एस० जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, 1965
जि० 2, पृ० 99-1001 109. श्रुबिंग, दी डाक्ट्रिन आफ दी जैनज, पृ० 2521 110. द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 151 : उत्तराध्ययन एस०बी०ई० जि० 45, पृ०
1671 - 111. जैकोबी सम्भोग को एकामण्डलयाम आहारकारानां कहते हैं। द्र० जैन सूत्रज भाग-2, पृ०
167 पाद टिप्पण-11 112. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 152। 113. वही। 114. गुरु की मुष्टि जैसी कोई बात बुद्ध के धर्म में नहीं थी क्योंकि बुद्ध धर्म पौरोहित्य का
विरोधी था। बुद्ध के मस्तिष्क में यह विचार कभी नहीं उपजा कि वह भिक्षु संघ का नेतृत्व करें या भिक्षु संघ उनके नेतृत्व में रहे। बुद्ध का अपने शिष्यों को यही परामर्श था कि