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जैन संघ का स्वरूप • 159
आसन देना, तथा पाद प्रमार्जन करना चाहिए। पर्यायस्थविर चाहे फिर वह गुरु, प्रव्राजक या वाचनाचार्य न भी हो, फिर भी उनके आने पर उठना चाहिए तथा उन्हें वन्दना करके उनके दण्ड लाठी को ग्रहण करना चाहिए।
दशवैकालिक, 9/1-4 दशवैकालिक उत्तराध्ययन, लाडनूं संस्करण, पृ० 51। 74. द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, प्र० 1461 75. जैन दर्शन: मनन और मीमांसा, पृ० 33। 76. ठाणं सं० मुनि नथमल, लाडनूं 8/15 पृ० 795। अधिक विस्तार के लिए देखें टिप्पण
16 पृ० 827-30 जहां प्रत्येक सम्पदा की अन्य चार कोटियां दी गयी हैं। इसके अतिरिक्त गणि के 6 गुण गिनाये गये हैं-(1) श्रद्धाशील, (2) सत्यवादी, (3) मेधावी पुरुष, (4) बहुश्रुत पुरुष, (5) शक्तिशाली पुरुष एवं (6) कलह रहित पुरुष-स्थानांग,
6/1: ठाणं पृ० 655 तथा 685-861 77. जिनशिष्य विशेष: द्र० हिस्ट्री आफ जैन मौनैकिज्म, पृ० 148 78. भगवान के पांचवें गणधर सुधर्मा स्वामी को उत्तरवर्ती साहित्य या पाश्चात्य संकलित
आगमों में कहीं भी गणधर नहीं कहा गया है। उनके लिए अज्जसुहम्मे का ही प्रयोग हुआ है। उत्तरवर्ती साहित्य में जहां आचार्य के अर्थ में गणधर शब्द का प्रयोग हुआ है, वह
विशेषण रूप में ही हुआ है। 79. मुनि नथमल, जैन परम्परा का विकास, द्र० साध्वी कनकधी, तुलसी प्रज्ञा, मार्च 76, पृ०
611 80. दी एज आफ विनय, पृ० 201 81. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 148। किन्तु टीकाकार की उक्त मान्यता का स्रोत क्या
रहा है, यह अवश्य चिन्तनीय है क्योंकि श्रमणी संघ के संचालन का भार प्रवर्तिनी पर होता था। यह छेदसूत्रों, उनके व्याख्या ग्रन्थों तथा उत्तरवर्ती साहित्य के आधार पर . निर्विवाद सिद्ध है। सम्भवत: विशाल साध्वी संघ की व्यवस्था, पथ दर्शन और आर्त गवेषणा का वृहत्तम दायित्व गणधर पर ही था। लेकिन साध्वियों की व्यवस्था के लिए
किसी वरिष्ठ श्रमण का मनोनयन होता था ऐसा उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। 82. श्रुबिंग, डाक्ट्रिन आफ दी जैनज, पृ० 2541 83. आवश्यक नियुक्ति गाथा 1209 की अवचूर्णि 721 84. व्यवहार भाष्य, 3/14, 191 85. वही, 3/14: द्र० स्टडीज इन बुद्धिस्ट एण्ड जैन मोनैकिज्म, पृ० 211। 86. आवश्यक नियुक्ति गाथा 1209 की अवचूर्णि 71 87. स्थानांग वृत्ति, पृ० 232 तथा 245 आ गणवच्छेदक संघ को सहारा देने के लिए, उसे
सुदृढ़ बनाने के लिए, संयम यात्रा के लिए श्रमणों के छोटे छोटे समूह लेकर विहार करते
हैं। तुलसी प्रज्ञा, जून 78, पृ० 621 88. व्यवहार भाष्य, 3/14, 191 89. वही, 3/14,20 : स्टडीज इन बुद्धिस्ट एण्ड जैन मोनैकिज्म, पृ० 211। 90. साध्वी कनकश्री, तुलसी प्रज्ञा, जनवरी-मार्च,76, पृ० 62। 91. जी०एस०पी० मिश्र, सम रिफलेक्शन्स आफ अर्ली जैन एण्ड बुद्धिस्ट मोनैकिज्म,
जिज्ञासा, अंक 3-4 जुलाई-अक्टूबर 1974, पृ० 101 92. वुल्लवग्ग, नालंदासंस्करण पृ० 271-74| 93. जी०एस०पी०मिश्र, पूर्वोक्त।