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जैन संघ का स्वरूप • 157
पंचमहाव्रतों की अपेक्षा पंचअणुव्रतों का पालन करता था। यह उसके व्यक्तिगत जीवन तथा समाज दोनों में सन्तुलन रखते थे। प्रसंगवश बौद्ध ग्रन्थों में ऐसे उपदेश अवश्य हैं। जो गृहस्थ शिष्यों के लिए ही हैं। अनेक धार्मिक नैतिक तथा आध्यात्मिक शिक्षाएं विशेषरूप से गृहस्थों को समर्पित हैं। महावग्ग नालन्दा संस्करण पृ० 309-10, जहां कि बुद्ध विशाखा की उदारता की प्रशंसा करते हैं।
39. कल्पसूत्र (एस० बी०ई०), जि० 22, पृ० 2011
40. महावग्ग नालन्दा संस्करण पृ० 319 : चुल्लवग्ग नालन्दा संस्करण पृ० 2591 अपने एक लेख दी नोशन आफ बुद्धिस्ट संघ जिज्ञासा, जि० 1, नं० 1-2 जनवरी - अप्रैल 1974 में डा० एस०एन० दुबे का कथन है कि- संघ और चतुदिस संघ में अन्तर यथार्थ और आदर्श का नहीं है अपितु स्थानीय और सार्वभौमिक अर्थात् बौद्ध संघ का है। जो अपनी सम्पूर्णता में तीसरी शताब्दी ईस्वी में सुदूर अंचलों तक विस्तार पा चुका था । उन्होंने विविध आर्थिक परिवर्तनों की ओर इंगित किया है जो कि दूसरी बौद्ध संगीति के समय दृष्टिगोचर हो रहे थे उदाहरण के लिए वज्जि भिक्षुगण द्वारा रजत और स्वर्ण मुद्राओं को स्वीकार करना। इन परिवर्तनों का संघ जीवन और सामान्य चिन्तना पर लक्षित प्रभाव बताया गया है तथा उपरोक्त पृ० 34 पर थेरवाद कथावस्तु की गणना भी इसके अंतर्गत की है। जिसमें संघ को मात्र व्यक्तियों की परिषद् बताया है तथा जिसके अनुसार संघ का आदर्शात्मक रूप मान्य नहीं है। डा० जी०एस०पी० मिश्र अपने लेख सम रिफलेक्शन्स अन अर्ली जैन एण्ड बुद्धिस्ट मोनैकिज्म जिज्ञासा नं० 3-4, जि० 9, जुलाई-अक्टूबर 1974 पृ० 7-8 पाद टिप्पण 7 में डा० दुबे के विचारों की विसंगति इन बिन्दुओं से दर्शाते हैं
(1) विचारणीय विषय संघ और चातुद्दिससंघ में अन्तर का नहीं अपितु सम्मुखों संघ और चातुद्दिस संघ के बीच विभेद का है।
(2) जो सार्वभौमिक है वह अमूर्त और आदर्शात्मक का विरोधी नहीं हो जाता ।
(3) लेखक की यह मान्यता कि चातुद्दिस संज्ञा तीसरी शताब्दी तथा द्वितीय बौद्ध परिषद के पश्चात् प्रयुक्त होने लगी उचित नहीं है।
(4) कम से कम अपने आरम्भिक रूप में तो शब्द "अनागत" अपने संयुक्त रूप में संघ की आदर्शात्मक स्थिति की ओर इंगित करता है न कि व्यक्तियों की परिषद् मात्र की ओर ।
41. महावग्ग, नालन्दा संस्करण, पृ० 1091
42. कल्पसूत्र (एस० बी०ई०), जि० 22, पृ० 267-68, सूत्र 134-1401
43. साध्वी कनकी, "महावीर की संघ व्यवस्था का प्रारूप और विकास", तुलसी प्रज्ञा, अप्रैल-जून 1974, पृ० 54 ।
44. डब्ल्यू. श्रुबिंग, डाक्ट्रिन आफ दी जैनज, 1962, पृ० 2531 आचारांग एस०बी०ई० जि० 22, पृ० 1131
45. जगदीश चन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० 218 |
46. देखे – नन्दकिशोर प्रसाद, स्टडीज इन बुद्धिस्ट एण्ड जैन मोनैकिज्म, पृ० 2071
47. अभिधान चिन्तामणि नाममाला, 1/781
48. अत्थवाइए आयरिओं - ओधनियुक्ति ख अर्थप्रदा आचार्या - ओघनिर्युक्ति वृत्ति
49. वैदिक परम्परा में भी अध्ययन अध्यापन की दृष्टि से आचार्य पद की प्रतिष्ठा थी व कार्य विभाजन भी जैन परम्परा से साम्य रखता था।