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जैन संघ का स्वरूप • 141
आवती अथवा ऐसे स्थान पर जहां विरुद्ध धर्मानुयायी रहते हों संकिण्ण अथवा अनापेक्षित परिस्थितियों, सहसकार अथवा भय से या घृणा के कारण नियम भंग करते हैं। 301 ऐसी परिस्थितियों में नियमभंग करने वालों की संघीय विधि से चिकित्सा की जाती थी जिसे नामान्तर से प्रायश्चित कहा गया है। चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिए नहीं दी जाती अपितु रोग निवारण के लिए की जाती है। इसी प्रकार प्रायश्चित भी राग आदि अपराधों के उपशमन के लिए दिया जाता है। 302 प्रायचित के निम्न निर्दिष्ट प्रयोजन हैं303_
(1) प्रमाद जनित दोषों का निराकरण,
(2) भावों की प्रसन्नता,
(3) शल्य रहित होना, (4) अव्यवस्था का निवारण, (5) मर्यादा का पालन, (6) संयम की दृढ़ता, (7) आराधना ।
परिस्थितिवश नियम भंग करने वाले श्रमण व श्रमणी तथा वह श्रमण और श्रमणी जो जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, क्षांत, दान्त, अमायावी तथा अपश्चातापी थे वह गुरु के समक्ष अपने अपराधों को स्वीकार कर लेते थे जिसे 'आलोचना' कहा जाता था। 304 दस स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना देने के योग्य होता था305_
(1) आचारवान
(2) आधारवान
(3) व्यवहारवान
(4) अपव्रीडक
(5) प्रकारी (6) अपरिश्रावी
- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच आचारों से युक्त ।
- आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोच्यमान समस्त अतिचारों को जानने वाला।
-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारण और जीत - इन पांच व्यवहारों को जानने वाला।
-आलोचना करने वाले व्यक्ति में वह लाज या संकोच से मुक्त होकर सम्यक् आलोचना कर सके, वैसा साहस उत्पन्न करने वाला।
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-आलोचना करने पर विशुद्धि कराने वाला ।
-आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रकट न करने वाला।