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(3) विवंक योग्य (4) व्युत्सर्ग योग्य (5) तपयोग्य
जैन संघ का स्वरूप • 143
-अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग । - कायोत्सर्ग ।
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(6) छेद योग्य
-अनशन, ऊनोदरी आदि । -दीक्षा पर्याय का छेदन। - पुनर्दीक्षा ।
(7) मूलयोग्य
(8) अनवस्थाप्य योग्य – तपस्यापूर्वक पुनर्दीक्षा । (9) पारांचिक योग्य- भर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक पुनर्दीक्षा ।
(2) संघदिशेष
(3) पाचित्तिय तथा पाटिदेसनीय
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यदि बौद्ध प्रातिमोक्ष की जैन प्रायश्चित से तुलना की जाये तो दोनों में काफी अंश तक समानता देखी जा सकती है । 309 उदाहरण के लिए
बौद्ध प्रातिमोक्ष जैन प्रायश्चित (1) पाराजिक
- पारांचिक - योग्य (पारांसिय) संघ निष्कासन या भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक पुनर्दीक्षा पद केवल नामान्तर प्रतीत होते हैं।
- अनवस्थाप्य - योग्य (अणवट्ठप्प ) संघ से अस्थायी निष्कासन तथा तपस्या पूर्वक पुनर्दीक्षा ।
प्रतिक्रमण योग्य, आलोचना - योग्य तथा विवेक योग्य - 'पडिक्रमण आलोयणा' तथा विवेग लगभग एक ही हैं।
इन प्रायश्चितों का विधान होने पर भी मूल जैन ग्रन्थों में कहीं भी इन नियमों के क्रियान्वयन का कोई उदाहरण नहीं मिलता जबकि बौद्ध संघ में न्याय विधिवत् होता था। उदाहरण के लिए तथागत के शिष्य आनन्द पर संघ के समक्ष प्रथम संगीति में अभियोग लगाया गया था। 310 जैन संघ में अस्थायी अथवा स्थायी संघ निष्कासन की चर्चा मात्र मिलती है । । ।
अनवस्थाप्य प्रायश्चित के भागी वह श्रमण होते थे जो 12_
(1) साधर्मिकों की चोरी करते थे।
(2) अन्य धार्मिकों की चोरी करने वाला ।
(3) हस्तताल देने वाला — मारक प्रहार करने वाला ।
इसी प्रकार पारांचित नामक प्रायश्चित तीन कारणों से किया जाता था। 3 1 3
(1) दुष्टपारांचित - संघ विरोधी गतिविधि करने पर ।