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जैन संघ का स्वरूप • 149
होता है। (2) प्रासुक भोजन सर्वत्र किया जा सकता है। (3) स्त्री मुक्ति । (4) शूद्रमुक्ति । (5) वस्त्र सहित मुक्ति। (6) गृहस्थवेश में मुक्ति। (7) अलंकार और कछोटे वाली प्रतिमा का पूजन। (8) मुनियों के चौदह उपकरण। (9) तीर्थंकर मल्लिनाथ का स्त्री होना। (10) ग्यारह अंगों की विद्यमानता। (11) भरतचक्रवर्ती को अपने घर में केवल्य ज्ञान की प्राप्ति। (12) शूद्र के घर से मुनि आहार ले सके। (13) महावीर का गर्भ धारण। (14) महावीर का विवाह व कन्या जन्म। (15) महावीर स्वामी को तेजोलेश्या से उपसर्ग। (16) तीर्थंकर के कन्धे पर देवदूष्यवस्त्र। (17) मरुदेवी का हाथी पर चढ़े हुए मुक्ति गमन। (18) साधु का अनेक घरों से भिक्षा ग्रहण करना।
श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति
उज्जैनी नामक नगरी में भद्रबाहु नामक आचार्य थे। वह निमित्तज्ञानी थे। उन्होंने संघ को बुलाकर कहा कि एक बड़ा भारी दुर्भिक्ष होगा जो बारह वर्षों में समाप्त होगा। इसलिए साधुओं को संघ बनाकर अन्य देशों को चले जाना चाहिए। यह सुनकर सब गणधर अपने अपने संघों को लेकर उन देशों को विहार कर गये जहां सुभिक्ष था। उन्हीं में से एक शान्ति आचार्य अपने शिष्यों के साथ सौराष्ट देश की वलभी नगरी में पहुंचे, किन्तु वहां भी दुर्भिक्ष था। भूखे लोग दूसरों का पेट फाड़कर खाने लगे थे। इस निमित्त को पाकर सबने कम्बल, दण्ड, तुम्बा, पात्र, आवरण और सफेद वस्त्र धारण कर लिए। ऋषियों का आचरण छोड़कर बस्ति में जाकर दीनतापूर्वक अथवा स्वेच्छापूर्वक भोजन आरम्भ कर दिया। उन्हें इस प्रकार का आचरण करते हुए बहुत काल बीत गया।
जब सुभिक्ष हो गया तो शान्ति आचार्य ने उन से कहा कि इस कुत्सित आचरण को छोड़ दो और प्रायश्चित करके मुनियों का श्रेष्ठ आचरण ग्रहण कर लो। इन वचनों को सुनकर उनके एक प्रधान शिष्य ने कहा कि इस दुर्धर आचरण