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जैन संघ का स्वरूप • 147
बहुरत
दुर्भाग्य से प्रथम संघभेद स्वयं भगवान के जामाता जमाली द्वारा श्रावस्ती में हुआ। इसके अनुसार कोई वस्तु एक समय की क्रिया से उत्पन्न नहीं होती। अनेक समयों में उत्पन्न होती है। 325 यह सिद्धान्त क्रियमाण अकृत, संस्तीर्यमाण असंस्तृत है अर्थात् किया जा रहा है किया नहीं गया है। कार्य की पूर्णता होने पर पूर्ण कहना ही यथार्थ है। 326
जीव प्रादेशिक
महावीर के केवल्य प्राप्ति के सोलह वर्ष बाद तिष्यगुप्त द्वारा यह संघभेद ऋषभपुर में आरम्भ हुआ। तिष्यगुप्त के अनुसार आत्मा समस्त शरीराणुओं से व्याप्त नहीं है। यह जीव के अन्तिम प्रदेश को ही जीव की संज्ञा प्रदान करते थे । किन्तु इन संघ भेदकों को अपनी भूल ज्ञात हो गयी और क्षमादान भी मिल गया । तिष्यगुप्त चौदह पूर्वों के वेत्ता आचार्य वसु के शिष्य थे। 327
अव्यक्तिक
आचार्य स्थूलभद्र के महाप्रयाण के तुरन्त बाद ही जैन संघ में तीन और संघभेद उत्पन्न हुए जिन्होंने संघ शक्ति को दुर्बल बनाया। अव्यक्तिक इन्हीं में से था । यह निन्हव महावीर के मोक्षगमन के दो सौ चौदह वर्ष पश्चात् आषाढ़ सेन 28 द्वारा किया गया। उनके अनुसार समस्त जगत अव्यक्त, अस्पष्ट और अज्ञेय है। मुनि तथा देवता में कोई अन्तर नहीं है। मौर्यवंश के बलभद्र ने उनको उपदेश दिया था।
सामुच्छेदक
यह महावीर के परिनिर्वाण के दो सौ बीस वर्ष पश्चात् अश्वमित्र द्वारा मिथिलानगरी में आरम्भ हुआ था । इस सिद्धान्त के अनुसार अच्छी बुरी क्रिया निष्प्रयोजन है क्योंकि जीवन का अन्त हो जाता है। प्रत्येक कार्य अपने उत्पन्न होने के अनन्तर समय में समस्त रूप से व्युत्छिन्न हो जाता है। अर्थात् प्रत्येक उत्पादित वस्तु क्षणस्थायी है। यह मत बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद के अनुकूल है । अन्त में खण्डरक्ख द्वारा उन्हें भी अपनी भूल ज्ञात हो गयी और उन्होंने क्षमा प्राप्त कर ली । यह मत नरक आदि भावों को क्षणस्थायी बताता था ।